Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२०८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ४, २८. भागं, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागं, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणं फुसंति। कुदो ? पुव्ववेरियदेवपयोगदो जोयणलक्खबाहल्लं संखेज्जजोयणबाहल्लं वा रज्जुपदरं सयमदीदकाले फुसंति त्ति । मारणंतियपदे वट्टमाणेहि छ चोदसभागा देसूणा पोसिदा । कुदो ? अच्चुदकप्पादो उवरि तेसिमुप्पत्तीए अभावादो तत्थ गमणाभावा । ण च उप्पत्तिखेत्तमुल्लंघिय गमणं संभवदि, अइप्पसंगा। उवरि णवगेवज्जेसु मिच्छादिद्विणो जदि उप्पज्जंति, तो असंजदसम्मादिट्ठीणं संजदासंजदाणं च उप्पत्ती किमिदि ण होज्ज ? मिच्छादिट्टिणो दव्यलिंगेण उप्पज्जति चे, एदे वि दयलिंगेण चेव उप्पज्जंतु, ण कोवि दोसो। उप्पज्जंतु चे, ण, खेत्तस्स देसूणसत्त-चोदसभागत्तप्पसंगादो ? ण एस दोसो, जदि वि णवगेवज्जेसु दव्यलिंगिणो असंजदसम्मादिट्ठी संजदासजदा च उप्पज्जति', तो वि सत्त चोदसभागा ण होति, माणुसखेत्तादो चेव तत्थुप्पत्तीदो। उववादगदेहि अदीदकाले तिण्हं लोगाणम
लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है, क्योंकि, पूर्वभवके वैरी देवोंके प्रयोगसे एक लाख योजन बाहल्यवाला अथवा संख्यात योजन बाहल्यवाला राजुप्रतररूप सर्वक्षेत्र अतीतकाल में स्पर्श किया है। मारणान्तिकसमद्धातपदपर वर्तमान जीवोंने कुछ कम छह बटे चौदह भाग (६) स्पर्श किये हैं, क्योंकि, अच्युतकल्पसे ऊपर उनकी उत्पत्तिका अभाव होनेसे वहांपर गमनका अभाव है । और, उत्पत्तिक्षेत्रको उल्लंघन करके गमन संभव नहीं है, अन्यथा अतिप्रसंग दोष प्राप्त हो जायगा।
शंका- अच्युतकल्पसे ऊपर यदि नवनवेयकोंमें मिथ्यादृष्टि मनुष्य उत्पन्न होते हैं, तो असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत तिर्यंचोंकी उत्पत्ति क्यों नहीं होना चाहिए? यदि कहा जाय कि मिथ्यादृष्टि मनुष्य द्रव्यालिंगसे उत्पन्न होते हैं, तो ये भी द्रव्यलिंगसे ही उत्पन्न होवें, इसमें कोई दोष नहीं है। यदि कहा जाय कि वे नवौवेयकोंमें उत्पन्न होवें, सो ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि, फिर स्पर्शनक्षेत्रके देशोन सात बटे चौदह ( ट ) भाग प्रमाण होने का प्रसंग प्राप्त होगा ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, यद्यपि नवौवेयकों में द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत जीव उत्पन्न होते हैं, तो भी सात बटे चौदह (४) भागप्रमाण स्पर्शनक्षेत्र नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि, उन नवग्रैवेयकोंमें मनुष्यक्षेत्रसे ही उत्पत्ति होती है। अर्थात् उनमें मनुष्य ही उत्पन्न होते हैं, तिर्यंच नहीं।
उपपादगत असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंच जीवोंने अततिकालमें सामान्य
१ प्रतिषु ' तस्स ' इति पाठः।
२ णरतिरिय देस-अयदा उक्कस्सेणच्चुदो ति णिम्गंथा। णर अयद-देस-मिच्छा गेवेज्जतो ति गच्छति ॥ त्रि. सा. ५४५.
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