Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
२१२.1 छक्खडागमे जीवट्ठाणं
[१, ४, ३०. णत्थि त्ति एदं खेत्तं पुव्वविधाणेणाणिय रज्जुपदरम्हि अवणिय संखेज्जसूचिअंगुलेहि गुणिदे तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागमेत्तं पंचिंदियतिरिक्खतिगमिच्छादिद्विसत्थाणखेत्तं होदि । विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउब्बियपदपरिणदतिविहमिच्छादिट्ठीहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्त संखेज्जदिभागो अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो। कुदो ? मितामित्तदेववसेण सव्वदीव-सागरेसु संचरणं पडि विरोहाभावादो । तेणेत्थ संखेजगुलवाहल्लं तिरियपदरमुड्डमेगूणवंचासखंडाणि करिय पदरागारेण ठइदे पंचिंदियतिरिक्खतिगमिच्छादिट्टिविहारवदिसत्थाणादिखेतं तिरियलोगस्स संखेजदिभागमेत्तं होदि। 'वा' सट्टो गदो। मारणंतिय-उववादगदपंचिंदियतिरिक्खतिगमिच्छादिट्ठीहि सबलोगो पोसिदो । लोगणालीए बाहिं तसकाइयाणमसंभवादो सव्वलोगो त्ति वयणं कधं घडदे ? ण एस दोसो, मारणंतिय-उववादविदतसजीवे मोत्तूण सेसतसाणं बाहिरे अत्थित्तप्पडिसेहादो।
क्षेत्रको पूर्वविधानसे लाकर और राजुप्रतरमेसे घटाकर संख्यात सूच्यंगुलोंसे गुणा करनेपर तिर्यग्लोकका संख्यातवें भागप्रमाण पंचेन्द्रियतिर्यंच, पंचेन्द्रियतिर्यंचपर्याप्त और योनिमती इन तीन प्रकारके मिथ्यादृष्टि तिर्यंचोंका स्वस्थानक्षेत्र हो जाता है । विहारवतस्वस्थान, वेदना कषाय और वैक्रियिकसमुद्धात, इन पदोंसे परिणत उक्त तीन प्रकारके मिथ्यादृष्टि तिर्यंचोंने सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्याल वां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है, क्योंकि, पूर्वभवके मित्र या शत्रुरूप देवों के घशसे सर्व द्वीप और सर्व समुद्रोंमें संचार (विहार) करने के प्रति कोई विरोध नहीं है। इसलिए यहांपर संख्यात अंगुल बाहल्यवाले तिर्यक्प्रतरको ऊपरसे उनचास खंड करके प्रतराकारसे स्थापित करनेपर पंचेन्द्रिय तिर्यंच आदि तीन प्रकारके मिथ्यादृष्टि तिर्यच जीवोसम्बन्धी विहारवत्स्वस्थान आदिका क्षेत्र हो जाता है, जो कि तिर्यग्लोकका संख्यातका भागमात्र होता है । इस प्रकारसे 'वा' शब्दका अर्थ हुआ।
मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदगन पंचेन्द्रिय तिर्यच आदि तीन प्रकारके मिथ्यादृष्टि तिर्यंच जीवाने सर्वलोक स्पर्श किया है। है शंका- लोकनालीके बाहिर त्रसकायिक जीवोंके असंभव होनेसे सर्वलोक स्पर्श किया है ' यह वचन कैसे घटित होता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपक्षस्थित सजीवों को छोड़कर शेष सजीवोंका सनाली बाहिर अस्तित्वका प्रतिषेध किया गया है।
१ उववाद-मारणंतियपरिणदतसमुझिउण सेस तसा । तसणालि बाहिरम्हि य णस्थि विजिणेहिं णिदिई ।। गो. जी. १९९.
Jain Education International
For Private & Personal use only
www.jainelibrary.org
www.jainelibrary