Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ४, १६.] फोसणाणुगमे णेरइयफोसणपरूवणं
[१८७ दिद्विसमाणा। मारणंतियसमुग्घादगदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो फोसिदो । एत्थ कारणं मिच्छाइट्ठीणं व वत्तव्यं ।
सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीणं अप्पणो सव्यपदाणं पद्माणकाले खेत्तभंगो । एदेहि दोहि गुणट्ठाणेहि अदीदकाले सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदणकसाय-वेउव्वियसमुग्धादगदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेजगुणो फोसिदो, एगणिरयावासस्स असंखेजघणंगुलाणि ठविय तप्पाओग्गाहि संखेज्जबिलसलागाहि गुणिदे तिरियलोगस्स असंखेजदिभागमेत्तदंसणादो । मारणंतिय-उववादगदेहि असंजदसम्मादिट्ठीहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो पोसिदो। कुदो ? सदुक्खंभदुवाहाणं खादफलस्स तिरियलोगस्त असंखेज्जदिभागत्तुवलंभादो । जदि वि उड़े गंतूण सगबिलबग्गमूलविक्खंभेण मणुसगई गच्छंति, तो वि तिरियलोगस्सासंखेज्जदिभागो, तिरिच्छेण लद्धखेत्तस्स बिलखेत्तवग्गमूलगुणिदसेढीए संखेज्जदिमागपमाणत्तादो । एदमत्थपदं सव्वत्थ जहासंभवं जाणिऊण जोजेयव्यं ।
पर्यायार्थिकनयसम्बधी स्पर्शनक्षेत्रकी प्ररूपणा मिथ्यादृष्टिगुणस्थानके समान है। मारणान्तिकसमुद्धातगत नारकी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंने अतीतकालकी सपेक्षा सामान्यलोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्रसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है। यहां पर कारण मिथ्यावष्टियों के समान कहना चाहिए।
सम्यग्मिथ्याडष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी जीवोंके अपने सर्वपदोंकी स्पर्शनप्ररूपणा वर्तमानकालमें क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिकसमुद्धातगत उक्त दोनों ही गुणस्थानवाले जीवोंने अतीतकालमें सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है, क्योंकि, एक नारकावासके असंख्यात घनांगुलोंको स्थापन करके तत्प्रायोग्य संख्यात बिल शलाकाओंसे गुणा करने पर तिर्यग्लोकका असंख्यातवां भागमात्र क्षेत्र देखा जाता है। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादगत असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी जीवोंने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है, क्योंकि, (असंख्यात योजन विस्तृत श्रेणीबद्धादि बिलोंके मारणान्तिक व उपपादगत उक्त नारकियोंका ) अपने दोनों ओरके दंडाकार व भुजाकार क्षेत्रोंका घनफल तिर्यग्लोकका असंख्यातवां भाग पाया जाता है।
यद्यपि ऊपर जाकर अपने बिल के वर्गमूल प्रमाण विष्कम्भसे नारकी मनुष्यगतिको जाते हैं, तो भी तिर्यग्लोकका असंख्यातवां भाग ही स्पर्शनक्षेत्र रहता है, क्योंकि, तिरळेरूपसे लब्ध उस क्षेत्रका प्रमाण, बिलसम्बन्धी क्षेत्रके वर्गमूलसे गुणित जगश्रेणीका संख्यातवां भाग ही होता है । यह अर्थपद सर्वत्र यथासंभव जान करके जोड़ना चाहिए।
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