Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१८२ ]
छक्खडागमे जीवाणं
[ १, ४, १६.
तो असंजदसम्मादिट्ठिमारणंतियपोसणं तिरियलोगादो असंखेज्जगुणं होइ, तिरियपदरबाहल्लादो मारणंतियखेत्तबाहल्लस्स असंखेञ्जगुणत्तादो । पढमपुढविसत्थाणखेत्ते सेढीए संखेजदिभागेण गुणिदे असंजदसम्म दिट्ठिमारणंतियपोसणं तिरियलोगादो असंखेञ्जगुणं होदित्ति के वि पञ्चवट्ठाणं कुणंति । तण्ण घडदे, सत्थाणखेतं बिलसलागाहि ओवट्टिय लस्स वग्गमूलविक्रमेण अद्धरज्जुआयामपोसणखे तुवलंमादो । ण उडुं गंतूग तिरिच्छं गच्छंताणं बहुपोसणं, तिरिच्छं गंतूग उड्डुं गच्छंताणं व, पुव्युत्तेणेव विक्खंभेण गमणुवलंभादो । एवमुववादस्स वि वत्तव्यं ।
पढमाए पुढवीए रइएसु मिच्छाइट्टिपहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १६ ॥
सत्थाणसत्थाण-विहारवदि सत्याण- वेदण कसाय - वेउच्चिय- मारणंतिय-उववादगदमिच्छादिट्ठीणं परूवणा वट्टमाणकाले खेत्तसमाणा । सत्थाणसत्याण-विहारव दिसत्थाण- वेदणकसाय- वे उव्वियसमुग्धादगदेहि मिच्छादिट्ठीहि अदीदकाले चदुण्हं लोगाणम संखेज दिभागो,
मारणान्तिक स्पर्शनक्षेत्र तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणा होता, क्योंकि, तिर्यक्प्रतर के बाद्दल्य से मारणान्तिकक्षेत्रका बाद्दल्य असंख्यातगुणा है ।
प्रथम पृथिवीके स्वस्थानक्षेत्र में जगश्रेणी के संख्यातवें भागसे गुणा करनेपर असंयतसम्यग्दृष्टि नारकों का मारणान्तिकस्पर्शनक्षेत्र तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणा होता है, ऐसा कितने ही आचार्य समाधान करते हैं । किन्तु वह घटित नहीं होता है, क्योंकि, स्वस्थानक्षेत्रको बिलशलाकाओंसे अपवर्तितकर लब्धराशिके वर्गमूलप्रमाण विष्कम्भ से अर्धराजु आयामप्रमाण स्पर्शनक्षेत्र पाया जाता है । तथा, ऊपर जाकर तिरछे गमन करनेवाले जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र बहुत नहीं है, जैसा कि तिरछे जाकर ऊपर जाने वालोंका स्पर्शनक्षेत्र बहुत नहीं है; क्योंकि, पूर्वोक्त ही विष्कम्भद्वारा गमन पाया जाता है ।
इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि नारकोंके उपपादक्षेत्रका भी कथन करना चाहिए ।
प्रथम पृथिवी में नारकियोंमें मिध्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १६ ॥
स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कपाय, वैकियिक और मारणान्तिक समुद्धात तथा उपपादगत मिथ्यादृष्टि नारकोंकी वर्तमानकालिक स्पर्शन प्ररूपणा क्षेत्र प्ररूपणा के समान है । स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना कषाय, और वैक्रियिकसमुद्धातगत मिथ्याति नारकोंने अतीतकाल में सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग
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