Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१७२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १, १०. ताव उड्डवट्टाणं' पणदालीसजोयणलक्खविक्खंभाणं' समपरिमंडलसंविदाणं' सत्तरज्जुआयदाणं खेतं तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो होदि, संखेज्जपदरंगुलमेत्तसेढिपमाणत्तादो। ण च पणदालीसजोयणलक्खविक्खंभसंखेज्जंगुलबाहल्लं संखेज्जरज्जुआयदकप्पवासियविमाणमेत्ततिरिच्छवहाणं खेत्तं पि तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागो होदि, एदस्स पुन्वखेत्तादो संखेज्जगुणहीणस्स तिरियलोगस संखेज्जदिभागत्तविरोधा। विमाणप्पडिद्विदअसंखेज्जुववादभवणसम्मुहवट्टखेत्तेसु समुदिदेसु किण्ण तं होइ ? ण, सेढीए असंखेज्जदिभागासंखेज्जजोयणरूंदर्यखेत्तेसु गहिदेसु वि तदसंभवादो।
सजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं पोसिदं, लोगस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जा वा भागा, सव्वलोगो वा ॥ १०॥
एदस्स मुत्तस्स वट्टमाणकालमस्सिदण पज्जवट्ठियपरूवणाए खेत्तभंगो । अदीद
समाधान नहीं होता है, क्योंकि, ऊपरकी ओर प्रवर्तमान, पैंतालीस लाख योजन विष्कम्भवाले, समपरिमंडल आकारसे संस्थित, और सात राजु आयत, ऐसे मारणान्तिकसमुद्धात करनेवाले प्रमत्तसंयतादि जीवोंका क्षेत्र तिर्यग्लोकका असंख्यातवां भाग नहीं होता है, क्योंकि, वह क्षेत्र संख्यात प्रतरांगुलमात्र जगश्रेणीके प्रमाण ही होता है । और न संख्यात राजु आयत, तथा कल्पवासी विमानों के प्रमाण तिर्यग्रूपसे प्रवर्तमान उक्त जीवोंका पैंतालीस लाख योजन विस्तार और संख्यात अंगुल बाहल्यवाला मारणान्तिकक्षेत्र भी तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग होता है, क्योंकि, पूर्वोक्त क्षेत्रसे संख्यातगुणे हीन इस क्षेत्रको तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग मानने में विरोध आता है।
शंका-विमानों में प्रतिष्टित असंख्यात उपपादशय्यावाले भवनोंके सम्मुख प्रवर्तमान उक्त जीवोंके समस्त मारणान्तिकक्षेत्र संयुक्त करने पर तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग क्यों नहीं हो जाता है ?
समाधान -नहीं, क्योंकि, श्रेणीके असंख्यातवें भाग तथा असंख्यात योजन विस्तृत क्षेत्रोंके ग्रहण करने पर भी तिर्यग्लोकका संख्यातवां भाग प्राप्त होना असंभव है।
सयोगिकेवली भगवन्तोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग, असंख्यात बहुभाग और सर्वलोक स्पर्श किया है ॥ १० ॥
इस सूत्रकी वर्तमानकालको आश्रय करके पर्यायार्थिकनयसम्बन्धी स्पर्शनकी प्ररूपणा क्षेत्रके समान है। अतीतकालको आश्रय करके पर्यायार्थिकनयसम्बन्धी प्ररूपणा भी क्षेत्रके समान ही है। विशेष बात यह है कि कपाटसमुद्धातगत केवलीका स्पर्शनक्षेत्र
१ प्रतिषु ।' स्थाने 'ए' इति पाठः। १ प्रतिषु वंदपंथ 'इति पाठः।
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