Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१७० ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, ४, ९.
मारणंतिय समुग्धाद्गदेहिं छ चोदसभागा देणा पोसिदा । कुदो ? सव्वत्थ लोगणालीए अन्तरे अच्छिय मारणंतियकरणं पडि विरोहाभावादो । केण ऊणा छ चोहसभागा ? डिमेण जोयणसहस्सेण आरणच्चदविमाणाणमुवरिमभागेण च ।
पत्तसंजद पहुडि जाव अजोगिकेवलीहि केवडियं खेत्तं फोसिद, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ ९ ॥
दव्यट्ठियणयमस्सिदूण भण्णमाणे अदीद- वट्टमाणकालेसु 'लोगस्स असंखेज्जदिभागो' इदि होदि । पज्जवद्वियणए पुण अवलंबिज्जमाणे अस्थि विसेसो । वट्टमाणकालमस्सिदूण पज्जवट्टियणयपरूवणाए खेत्तभंगो । संपदि अदीदकालमस्सिदूण पज्जवट्ठियपरूवणा कीरदे । तं जधा - सत्थाणसत्याण-विहारव दिसत्थाण- वेदण-कसाय- वे उच्चियते जाहारसमुग्धादगदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो पोसिदो माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो । विउव्वणादिइड्डित्तेहि माणुसखेत्तन्तरे अप्पडिहयगमणेहि रिसीहि अदीदकाले सव्वं पि माणुसखेत्तं पुसिज्जदित्ति ' माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो ' इदि वयणं ण घडदे ? ण
मारणान्तिकसमुद्धातगत संयतासंयत जीवोंने कुछ कम छह वटे चौदह ( ) भाग स्पर्श किये हैं; क्योंकि, लोकनालीके भीतर सर्वत्र रहकर मारणान्तिकसमुद्धात करनेके प्रति कोई विरोध नहीं है ।
शंका- यहां पर यह छह बटे चौदह ( ) भाग किस क्षेत्र से कम करना चाहिए ? समाधान- सुमेरुसे नीचे के एक हजार योजनसे और आरण-अच्युत विमानोंके उपरिम भागसे कम करना चाहिए ।
प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ ९ ॥ द्रव्यार्थिकनयका आश्रय लेकर स्पर्शनक्षेत्रके कहनेपर अतीत और वर्तमानकाल में लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही स्पर्शनका क्षेत्र होता है । किन्तु पर्यायार्थिकनयके अवलम्बन करनेपर कुछ विशेषता है । उसमेंसे वर्तमानकालका आश्रय करके पर्यायार्थिकनयसम्बन्धी स्पर्शनप्ररूपणा करनेपर क्षेत्रप्ररूपणा के समान ही स्पर्शनका क्षेत्र है । अब अतीतकालका आश्रय लेकर पर्यायार्थिकनय सम्बन्धी स्पर्शनकी प्ररूपणा की जाती है । वह इस प्रकार है- स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, वैक्रियिकसमुद्धात, तैजससमुद्धात और आहारकसमुद्धातगत प्रमत्तसंयतादि गुणस्थानवर्ती जीवने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है और मनुष्यक्षेत्रका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है ।
शंका - विक्रियादि ऋद्धिप्राप्त और मानुषक्षेत्र के भीतर अप्रतिहत गमनशील ऋषियोंने अतीतकालमें सम्पूर्ण मानुषक्षेत्र स्पर्श किया है, इसलिए 'मनुष्यक्षेत्रका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है' यह वचन घटित नहीं होता है ?
१ प्रमत्तसंयतादीनामयोग केवल्यन्ताना क्षेत्रवत्स्पर्शनम् । स. सि. १, ८.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org