Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, ४, ५.
सम्मामिच्छाइट्टि· असंजदसम्माइट्ठीहि केवडियं खेत्तं पोसिर्द, लोगस्स असंखेज्जदिभागों ॥ ५ ॥
एदस्स सुत्तस्स अत्थो बुच्चदे | सम्मामिच्छाइट्ठीहि सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण- वेदण-कसाय- वे उच्चियसमुग्धादगदेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो फोसिदो । माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणो । कारणं खेत्त मंगो । असंजदसम्माइडीणं सत्थाणसत्थाणविहारवदिसत्थाण- वेदण-कसाय येउच्चिय-मारणंतिय उववाद्गदाण खेत्तम्हि वुत्तत्थो संभfor anoar |
१६६ ]
अट्ट चोहसभागा वा देसूणा ॥ ६ ॥
पुत्रसुतादो सम्मामिच्छादिट्ठि-असंजदसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदमिदि अणुदे । अदीदकालेणेति वयणस्स अज्झाहारो कायव्वो । कुदो १ एदेसिं दोन्ह गुणणं मणकालविसिखेत्तस्स पुत्रं परुविदत्तादो । सम्मामिच्छ । दिट्ठीहि सत्थाण तिन्हं लोगाणमसंखेजदिभागो, अड्डाइजा दो असंखेजगुणो फोसिदो, तिरियलोगस्स
सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ।। ५॥
इस सूत्र का अर्थ कहते हैं - स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धातगत सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवने सामान्यलोक आदि चार लोकोंका असंख्यातवां भाग और मनुष्यक्षेत्र से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया है । इसका कारण क्षेत्रप्ररूपणाके समान ही जानना चाहिए । स्वस्थानस्थान, विद्वारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, वैक्रियिकसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादपदको प्राप्त असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रप्ररूपणा में कहे गये अर्थको स्मरण करके कहना चाहिए ।
सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने अतीतकालकी अपेक्षा कुछ कम आठ वटे चौदह भाग स्पर्श किये हैं ॥ ६ ॥
यहां पूर्वसूत्र से 'सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ' इतने पदकी अनुवृत्ति होती है । तथा 'अतीतकालसे' इस वचन का भी अध्याहार करना चाहिए, क्योंकि, दोनों गुणस्थानोंके वर्तमानकालविशिष्ट क्षेत्रका पहले प्ररूपण किया जा चुका है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवने स्वस्थानकी अपेक्षा सामान्य लोक आदि तीन लोकोंका असंख्यातवां भाग, अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणा तथा तिर्यग्लोकका
१ सम्यग्मिथ्यादृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टि मिर्लोकस्यासंख्येयभागः अष्टौ वा चतुर्दशभागा देशोनाः । स. सि. १, ८० २ प्रतिषु ' संमनिय ' इति पाठः ।
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