Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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८८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ३, २२. एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे। तं जहा- पुढविकाइया सुहुमपुढविकाइया तेसिं पज्जत्ता अपज्जत्ता, आउकाइया सुहुमआउकाइया तस्सेव पजत्ता अपज्जत्ता, तेउकाइया सुहुमतेउकाइया तस्सेव पज्जत्ता अपज्जत्ता, वाउकाइया सुहुमवाउकाइया तस्सेव पज्जत्ता अपज्जत्ता च सत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय-उववादगदा सव्वलोए, असंखेज्जलोगमेत्तपरिमाणादो । णवरि तेउकाइया वेउब्वियसमुग्घादगदा पंचण्हं लोगाणामसंखेज्जदिभागे, वाउकाइया वेउव्वियसमुग्घादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे । माणुसखेत्तं ण णव्वदे । बादरपुढविकाइया तेसिं चेव अपज्जत्ता सत्थाण-वेदण कसायसमुग्घादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगादो संखेज्जगुणे', अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । तं जहाजेण बादरपुढविकाइया सापज्जत्ता पुढवीओ चेव अस्सिदृण अच्छंति, तेण पुढवीओ जगपदरपमाणेण कस्सामो । 'तत्थ पढमपुढवी एगरज्जुविक्खंभा सत्तरज्जुदीहा वीससहरसूण-वे-जोयणलक्खबाहल्ला, एसा अप्पणो वाहल्लस्स सत्तमभागबाहल्लं जगपदरं होदि ।
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अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इसप्रकार है--स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात और उपपादको प्राप्त हुए पृथिवीकायिक और सूक्ष्म पृथिवीकायिक तथा उन्हींके पर्याप्त और अपर्याप्त जीव, अप्कायिक और सूक्ष्म अप्क यिक तथा उन्हींके पर्याप्त और अपर्याप्त जीव, तेजस्कायिक और सूक्ष्म तैजस्कायिक तथा उन्हींके पर्याप्त और अपर्याप्त जीव, वायुकायिक और सूक्ष्म वायुकायिक तथा उन्हींके पर्याप्त और अपर्याप्त जीव सर्व लोकमें रहते हैं, क्योंकि, उक्त राशियोंका परिमाण असंख्यात लोकप्रमाण है। इतनी विशेषता है कि वैक्रियिकसमुद्घातको प्राप्त हुई तैजस्कायिकराशि पांचों लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहती है । वैक्रियिकसमुद्घातको प्राप्त हुई वायुकायिकराशि सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहती है। वैक्रियिकसमुद्घातको प्राप्त हुई वायुकायिकराशि मानुषक्षेत्रकी अपेक्षा कितने क्षेत्र में रहती है, यह नहीं जाना जाता है । स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घातको प्राप्त हुए बादर पृथिवीकायिक और उन्हींके अपर्याप्त जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग तिर्यग्लोकसे संख्यातगुणे क्षेत्रमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-चूंकि बादर पृथिवीकायिक जीव और उन्हींके अपर्याप्त जीव पृथिवीका आश्रय लेकर ही रहते हैं, इसलिये पृथिवियोंको जगप्रतरके प्रमाणसे करते हैं । उनमेंसे एक राजु चौड़ी, सात राजु लम्बी और बीस हजार योजन कम दो लाख योजना मोटी पहली पृथिवी है। यह घनफलकी अपेक्षा अपने बाहल्यके अर्थात् एक लाख अस्सी हजार योजनके सातवें भाग बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण है।
१ प्रतिषु ' असंखेजगुणे ' इति पाठः।
२ इत आरभ्याष्टपृथिवीप्ररूपकोऽधस्तनो गद्यभागस्त्रिलोकप्रज्ञप्तेः प्रथमाधिकारस्यान्तिमभागेन सह शब्दशः समानः ।
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