Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे जीवाणं
[१, ३, ८.. संजदपावणा कादव्या । असंजदसम्मादिट्ठी वि मारणंतिय-उववादपदेसु वट्टमाणा संखेजा। सेसं सुगमं ।
सजोगिकेवली ओघं ॥ ८०॥
पुघिल्लेहि सह खेत्तं पडि पयरिसेग पच्चासत्तीए अभावादो पुध सुत्तारंभो । सेसं सुगम ।
वेदगसम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव अपमत्तसंजदा केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ।। ८१ ॥
___एत्थ ओघपज्जवट्ठियपरूवणा णिरवयवा सन्चगुणट्ठाणेसु परूवेदव्या, विसेसाभावादो।
उवसमसम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिहिप्पहुडि जाव उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ।। ८२ ॥
पर्याप्त संयतासंयतोंमें संभव पदों की अपेक्षा ही क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिए । मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, इन दो पदों में वर्तमान असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यात ही होते हैं। शेष सूत्रका अर्थ सुगम है।
सयोगिकेवली भगवान्का क्षेत्र ओघ-कथित क्षेत्रके समान है ।। ८.॥
सयोगिकेवली गुणस्थानकी पूर्ववर्ती गुणस्थानोंके साथ क्षेत्रकी अपेक्षा प्रकर्षतासे प्रत्यासत्तिका अभाव है, इसलिए यह पृथक् सूत्र बनाया गया है। शेष सूत्रका अर्थ सुगम है।
वेदकसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टि जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ।। ८१ ॥
___ यहांपर ओघमें कही गई पर्यायार्थिकनयसम्बन्धी क्षेत्ररूपणा सम्पूर्ण पदोंकी अपेक्षा सर्व गुणस्थानों में प्ररूपण करना चाहिए, क्योंकि, उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है।
उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर उपशान्तकषायवीतरागछमस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टि जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ।। ८२ ।।
१क्षायोपत्रमिकसम्यग्दृष्टीनामसंयतसम्यग्दृष्टयाचप्रमत्तान्तानt xxxसामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १,८.
औपशमिकसम्यष्टीनामसंयतसम्यग्दष्टशायुपशान्तकषायान्ताना xx सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १, 6.
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