Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ४, ४.] फोसणाणुगमे सासणसम्मादिहिफोसणपरूवणं
[ १५७ जोइसिया णत्थि त्ति कुदो णव्यदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो। एसा तप्पाओग्गसंखेज्जरूवाहियजंबूदीवछेदणयसहिददीवसायररूवमेत्तरज्जुच्छेदपमाणपरिक्खाविही ण अण्णाइरिओवदेसपरंपराणुसारिणी, केवलं तु तिलोयपणत्तिसुत्ताणुसारी जोदिसियदेवभागहारपदु. प्पाइयसुत्तावलंबिजुत्तिवले ग पयदगच्छमाहणहमम्हेहि परूविदा, प्रतिनियतमूत्रावष्टम्भवल. विजूंभितगुणप्रतिपन्न प्रतिबद्धासंख्येयावलिकावहारकालोपदेशरत् आयतचतुरस्रलोकसंस्थानोपदेशवद्वा । तदो ण एत्थ इदमित्थमेवेत्ति एयंतपरिग्गण असग्गाहो काययो, परमगुरु.
आवश्यक है। इस विधानसे परिकर्मके 'जत्तियाणि दीवसागररूवाणि' आदि कथनमें जो विरोध पड़ता है, उसके विषय में धवलाकारने यहां स्पष्ट कहा है कि उक्त कथन सूत्र-विरुद्ध होनेसे ग्राह्य नहीं है। किन्तु द्रव्यप्रमाणानुगममें उस विरोधका भी एक प्रकारसे परिहार किया है । (देखो तृ. भाग, सूत्र ४, पृ. ३३-३६)
शंका - वहां, अर्थात् स्वयम्भूरमणसमुदके परभागमें ज्योतिष्क देव नहीं है, यह कैसे जाना ?
समाधान-इसी सूत्रसे जाना जाता है।
यह तत्प्रायोग्य संख्यात रूपाधिक जम्पूछीपके अर्धच्छेदोंसे सहित द्वीप-सागरोंके रूपप्रमाण राजुसम्बन्धी अर्धच्छेदों के प्रमाण की परीक्षा-विधि अन्य आचार्योंकी उपदेशपरमाराकी अनुसरण करनेवाली नहीं है, किन्तु केवल त्रिलोकप्रज्ञप्तिसूत्रका अनुसरण करनेवाली है, जो कि ज्योतिषक देवों के भागहारको उत्पन्न करनेवाले सूत्रसे अवलम्बित युक्तिके बलसे प्रकृत गच्छके साधनार्थ, प्रतिनियत सूत्रके अवष्टम्भ-वलसे विजृम्भित अर्थात् तत्प्रतिपादक सूत्रके आश्रयले गुणस्थान-प्रतिपन्न सासादनसम्यग्दाट आदि जीवों से प्रतिबद्ध असंख्यात आवलियोंके अवहारकालके उपदेशके समान, तथा आयत-चतुष्कोण पुरुषाकार लोक-संस्थानके उपदेशके समान हमने निरूपण की है।
विशेषार्थ-यहां धवलाकारने दृष्टान्तपूर्वक दान्तिको सिद्ध करने के लिए जिन विशेषताओंका उल्लेख किया है, उनके कहने का अभिप्राय क्रमशः निम्न प्रकार है
(१) पहला दृष्टान्त प्रतिनियत सूत्राश्रयसे सासादनादि गुणस्थानवी जीवोंके असंख्यात आवलिकात्मक अन्तर्मुहूर्तप्रमाण भागहारके उपदेशका दिया है, जिसका अभिप्राय समझने के लिए द्रव्यप्रमाणानुगत तृतीय भाग पृ. ६९ के मूल पाठ और विशेषार्थको देखिए। यहांपर उल्लेख करने का प्रयोजन यह है कि 'संख्यात आवलियोंका एक अतमुहूर्त होता है। इस प्रचलित एवं सर्व-मान्य मान्यताको भी 'एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुहुत्तेण कालेण' (द्रव्यप्र. सू. ६) इस सूत्रके आधारसे 'अन्तर्मुहूर्त' इस पदमें पड़े हुए 'अन्तर' शब्दको सामीप्यार्थक मानकर यह सिद्ध किया है कि अन्तर्मुहूर्तका अभिप्राय मुहूर्तसे अधिक कालका भी हो सकता है, और इसलिए प्रकृतमें 'अन्तर्मुहूर्त' का अर्थ मुहूर्तसे अधिक कालका ही लेना चाहिए।
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