Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ४, ५.1 फौसणाणुगमे सासणसम्मादिट्ठिफोसणपरूवर्ण
[१५५ एवं द्विदसंकलणाणमाणयणं बुच्चदे- छरूवाहियजंबूदीवछेदणएहि परिहीणरज्जुच्छेदणाओ गच्छं कादण जदि संकलणा आणिज्जदि तो जोदिसियजीवरासी ण उप्पज्जदि, जगपदरस्स वेछप्पण्णंगुलसदवग्गभागहाराणुववत्तीदो । तेण रज्जुच्छेदणासु अण्णेसि पि तप्पाओग्गाणं संखेज्जरूवाणं हाणि काऊग गच्छो ठवेदव्यो । एवं कदे तदियसमुद्दो आदी ण होदि त्ति णासंकणिज्जं; सो चेव आदी होदि, सयंभूरमणसमुदस्स परभागसमुप्पण्णरज्जुछेदणयसलागाणमागयणकारणादो।
सयंभ्रमणसमुदस्स परदो रज्जुच्छेदणया अत्थि त्ति कुदो णव्वदेः१ वेछप्पण्णं
(२) १९४४ ६३ x ६४ = ८०६४ उत्तरधन । इस उत्तरधनको ५७६४ ६४ = ३६८६४ में मिला देनेसे चतुर्थ द्वीपसम्बन्धी समस्त चन्द्रोंका प्रमाण हो जाता है
(३६८६४ + ८०६४ = ४४९२८ सर्वधन) (३) १५६ x १२७४ ६४ = ३२५१२ उत्तरधन । इस उत्तरधनको ११५२४१२८१४७४५६ में मिला देनेसे चतुर्थ समुद्रसम्बन्धी समस्त चन्द्रोंका प्रमाण हो जाता है
(१४७५५६ + ३२५१२ = १७९९६८ सर्वधन) इसी क्रमसे आगेके प्रत्येक द्वीप और समुद्रका स्वयंभूरमणसमुद्र तक उत्तरधन एवं सर्वधन निकालते जाना चाहिए ।
__ अब इस प्रकारसे अवस्थित संकलनोंके निकालनेके प्रकारको कहते हैं-छह रूप अधिक जम्बूद्वीपके अर्धच्छेदोंसे परिहीन राजुके अर्धच्छेदोंको गच्छराशि बना करके यदि संकलनराशि निकाली जाती है, तो ज्योतिक जीवराशि नहीं उत्पन्न होती है, क्योंकि ऐसा करनेपर जगप्रतरका दो सौ छप्पन सूच्यंगुलोंके वर्गप्रमाण भागहार नहीं उत्पन्न होता है। इसलिए राजुके अर्धच्छेदों में तत्प्रायोग्य अन्य भी संख्यात रूपोंकी हानि (कमी) करके गच्छ स्थापित करना चाहिए। ऐसा करने पर तृतीय समुद्र आदि नहीं होता है, ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए, किन्तु वही, अर्थात् तृतीय समुद ही, आदि होता है, क्योंकि, इसका कारण स्वयम्भूरमणसमुद्र के परभागमें उत्पन्न होनेवाले राजुके अर्धच्छेदसम्बन्धी शलाकाओंका आना है।
शंका-स्वयम्भूरमण समुदके परभाग, राजुके अर्धच्छेद होते हैं, यह कैसे जाना ? समाधान-ज्योतिष्कदेवोंका प्रमाण निकालने के लिए दो सौ छप्पन सूच्यंगुलके
१ लवणे दु पडिदेक्क बूंए दैज्जमादिमा पंच । दोउदही मेरुसला पयदुवजोगी णं कच्चे ते ॥ तियहीण रोटिछेदणमेत्तो रज्जुच्छिदी हवे गच्छो । जंबूदीवच्छिदिणा छरूवजुत्तेण परिहीणा ॥ त्रि. सा. ३५८-३५९.
२म प्रती 'सलागाणमरणवयणकारणादो' अन्यप्रतिघु 'सलागाणमरणक्करणादो' इति पाठः।
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