Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ४, १.] फोसणाणुगमे सासणसम्माइट्ठिफोसणपवणं
[१६१ वेंतरदेवसासणसम्माइद्विसत्थाणखेतं पि तिरियलोगस्स संखेज्जदिमागमेत्तं होदि । तं कधं ? वेतरदेवरासिं दृविय एके कम्हि वेंतरावासे संखेज्जा चेव वेंतरदेवा होति ति
तारेका स्थूल घनफल-२४३४३४ २ = २.; तथा जम्बूद्वीपके समस्त तारोंका घनफल स्थूल रूपसे १३३९५ ४ १० x २ = ९९२२ कोट्टाकोड़ी घनकोश हुआ।
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तारागण पृथिवीसे ७९० योजन ऊपरसे लगाकर ९०० योजन तक अर्थात् ११० योजन-बाहल्य आकाशमें रहते हैं । (देखो त्रिलोकसार गाथा ३३२-३३४)। अतः एक लाख योजन व्यासवाले जम्बूद्वीपके ऊपर ११० योजन क्षेत्रका घनफल निकालनेसे१२४ १०४१०५४४४० = ५२८ x १०११ घनकोश हुए । इस प्रकार तारोंके धनफलमें १८ अंक है, किन्तु जम्बूद्वीपसम्बन्धी उक्त क्षेत्रमें केवल १४ अंक आते हैं। इस प्रकार वे सब तारे उक्त क्षेत्र में नहीं समा सकते। किन्तु यदि तारों में उत्सेधांगुलोंका प्रमाण स्वीकार किया जाय और उक्त क्षेत्रमें प्रमाणांगुलोंका, तो उक्त क्षेत्रके प्रमाणको ५०० से गुणा कर देने पर वह क्षेत्र ५२८ x १२५४१०१ = ६६ ४ १०२० अर्थात् २२ अंक प्रमाण हो जाता है, जिससे उक्त तारोंको उस क्षेत्रके भीतर सावकाश रहने के लिए स्थान मिल जाता है। इसीलिये धवलाकारने कहा है कि विमानोंके प्रमाण में उत्सेधांगुल ही ग्रहण करना चाहिए, और यही बात त्रिलोकप्रशान्ति आदि ग्रंथोंसे भी सिद्ध है।
धवलाकारने जो दूसरे प्रकारसे उक्त वैषम्यका समाधान किया है कि विमानोंके प्रमाणमें प्रमाणांगुल ग्रहण करके भी ज.बुद्धीप और लवणसमुद्र, दोनोंके आश्रयसे उन विमानोंके अवस्थानके योग्य क्षेत्र बन जाता है, सो यह बात गणितमें ठीक नहीं उतरती, क्योंकि, जम्बूद्वीप और लवणसमुद्र दोनोंके ऊपरका ११० योजन-बाहल्य क्षेत्र केवल६४ १० x ५ x १०४४४० = १३२ - १०१३ घनकोश आता है। यह क्षेत्र केवल १६ अंकप्रमाण होनेसे केवल जम्बूद्वीपके तारोंके लिए भी पर्याप्त अवकाश नहीं प्रदान कर सकता । तिसपर लवणसमुद्रसम्बन्धी चार चन्द्रोंके परिवारके तारों को भी वहां अवकाश प्राप्त होना है। इस प्रकार तारों के विमानोंको प्रमाणांगुलोंके मापमें लेकर धवलाकारने उनको किस प्रकार अवकाश प्राप्त कराया है, यह समझमें नहीं आता।
सासादनसम्यग्दृष्टि व्यन्तर देवोंका स्वस्थानक्षेत्र भी तिर्यग्लोकका संख्यातवां भागमात्र होता है।
शंका-वह कैसे? समाधान-व्यन्तर देवोंकी राशिको स्थापित करके एक एक व्यन्तरावासमें संख्यात
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