Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१३८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ३, ९१. सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्मादिट्ठी अजोगिकेवली केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ९१ ॥ - पज्जवट्ठियणएण उववादगदा सासणसम्मादिट्ठी चदुण्डं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे अच्छति । असंजदसम्मादिट्ठीणं परूवणा एवं चेव । अजोगि. केवली चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिमागे।
सजोगिकेवली केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जेसु वा भागेसु, सव्वलोगे वा ॥ ९२ ॥
पदरगदो सजोगिकेवली लोगस्स असंखेज्जेसु भागेसु वा होदि, लोगपेरंतडिदवादवलयवदिरित्तसयललोगखेत्तं समावूरिय द्विदचादो। लोगपूरणे पुण सव्वलोगे भवदि, सबलोगमावूरिय द्विदत्तादो।
( एवं आहारमग्गणा समत्ता)
एवं खेत्ताणिओगद्दारं समत्त । अनाहारक सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और अयोगिकेवली कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ९१॥
पर्यायार्थिकनयसम्बन्धी क्षेत्रप्ररूपणाकी अपेक्षा उपपादको प्राप्त अनाहारक सासादनसम्यग्दृष्टि जीव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। अनाहारक असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंकी क्षेत्रप्ररूपणा भी इसी प्रकार जानना चाहिए। अनाहारक अयोगिकेवली भगवान् सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और मनुष्यक्षेत्रके संख्यातवें भागमें रहते हैं।
अनाहारक सयोगिकवली भगवान् कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यात बहुभागोंमें और सर्वलोकमें रहते हैं । ९२॥
प्रतरसमुद्धातगत सयोगिकेवली जिन लोकके असंख्यात बहुभागों में रहते हैं, क्योंकि, वे लोकके चारों ओर स्थित वातवलय-व्यतिरिक्त सकल लोकके क्षेत्रको समापूरित करके स्थित होते हैं। पुनः लोकपूरणसमुद्धातमें वे ही सयोगिकेवली जिन सर्व लोकमें रहते हैं, क्योंकि, उस समय वे सर्व लोकको आपूरण करके स्थित होते हैं।
(इस प्रकार आहारमार्गणा समाप्त हुई।)
इस प्रकार क्षेत्रानुयोगद्वार समाप्त हुआ। १ अनाहारकाणां मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टघयोगकेवलिना सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स सि.१,८. ..., २ सयोगिकेवलिना लोकस्यासंख्येयभागाः सर्वलोको वा । स. सि. १, ८.
३ क्षेत्र निर्णयः कृतः। स. सि. १,८.
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