Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छवखंडागमे जीवाणं
दाणि तिणि वित्ताणि सुगमाणि त्ति एदेसि परूवणा ण कीरदे । एवं सम्मत्तमग्गणा समत्ता ।
सणियाणुवादेण सणीसु मिच्छादिट्टि पहुडि जाव खीणकसायवीदरा गछदुमत्था केवड खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ८६ ॥ सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण- वेदण-कसाय- वे उव्वियसमुग्धाद गदा सण्णिमिच्छादिट्ठी तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे अच्छंति । एवं मारणंतिय उववादपदेसु वि वत्तव्यं । णवरि तिरियलोगादो असंखेज्जगुणे इदि भाणिदव्वं । सेसगुणद्वाणाणमोघभंगो, तदो विसेसाभावादो । असण्णी केवड खेत्ते, सव्वलोगे ॥ ८७ ॥
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एदस्स सुतस अत्थो सुगमो ।
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एवं सणिमन्गणा समत्ता ।
ये उक्त तीनों ही सूत्र सुगम है, इसलिए उनकी प्ररूपणा नहीं की जाती है । इस प्रकार सम्यक्त्वमार्गणा समाप्त हुई ।
संज्ञिमार्गणा के अनुवाद से संज्ञी जीवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती संज्ञी जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग में रहते हैं ॥ ८६ ॥
स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्रात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्रात, इन पांच पदोंको प्राप्त संक्षी मिथ्यादृष्टि जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं । इसीप्रकार मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, इन दो पदोंमें वर्तमान संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीवों का भी क्षेत्र कहना चाहिए । केवल इतनी बात विशेष कहना चाहिए कि ये तिर्यग्लोकले असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । सासादनादि शेष गुणस्थानवर्ती जीवोंका क्षेत्र ओघ क्षेत्र के समान है, क्योंकि, ओघके क्षेत्र से सासादनादि गुणस्थानोंके संज्ञी जीवों के क्षेत्र में कोई विशेषता नहीं है ।
असंज्ञी जीव कितने इस सूत्र का अर्थ
[ १, ३, ८६.
क्षेत्रमें रहते है ? सर्व लोक में रहते हैं ॥ ८७ ॥
सुगम
है ।
इस प्रकार संशिमार्गणा समाप्त हुई ।
१ संज्ञानुवादेन संज्ञिन चक्षुर्दर्शनिवत् । स. सि. १,८.
२ असंज्ञिना सर्वलोकः । स. सि. १,८.
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