Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे जीवाण
११० ]
[ १, ३, ४०.
दस्त अत्थो - सत्याण-विहारवदि सत्थाणपरिणदपमतसंजदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे । मारणंतिय समुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । सेसपदाणि णत्थि । आहारमिस्सकायजोगिणो पमत्तसंजदा सत्थाणगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे ।
कम्मइयकायजोगीसु मिच्छाइट्ठी ओघं ॥ ४० ॥
सत्थाण- वेदण-कसाय-उववादगदा कम्मइयकायजोगिमिच्छादिट्टिणो जेण सन्वत्थ सव्वद्धं होंति, तेण सव्वलोगे बुत्ता ।
सासणसम्मादिट्ठी असंजदसम्माइट्ठी ओघं ॥ ४१ ॥
एदे दो विरासीओ जेण चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेअगुणे खेत्ते अच्छंति, तेण सुत्ते ओघमिदि वृत्तं ।
इस सूत्र का अर्थ कहते हैं- स्वस्थानस्वस्थान और विहारवत्स्वस्थान इन दोनों पदोंसे परिणत आहारकाययोगी प्रमत्तसंयत सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और मानुषक्षेत्रके संख्यातवें भागमें रहते हैं । मारणान्तिकसमुद्धातगत आधार काययोगी सामान्यलोक आदि बार लोकोंके असंख्यातवें भाग में और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । आहारकाययोगी प्रमत्तसंयतके उक्त तीन पदोंके सिवाय शेष सात पद नहीं होते हैं । स्वस्थानगत आहारकमिश्रकाययोगी प्रमत्तसंयत सामान्यलोक आदि चारों लोकोंके असंख्यातवें भागमें और मानुषक्षेत्र के संख्यातवें भाग में रहते हैं ।
कार्मणका योगियोंमें मिध्यादृष्टि जीव ओघमिथ्यादृष्टि के समान सर्व लोकमें रहते हैं ॥ ४० ॥
स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और उपपाद, इन पदोंको प्राप्त कार्मण'काययोगी मिथ्यादृष्टि जीव चूंकि सर्वत्र सर्वकालमें पाये जाते हैं, इसलिए वे सर्वलोक में रहते है, ऐसा कहा गया है ।
कार्मणका योगी सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव ओघके समान ates असंख्यातवें भाग में रहते हैं ।। ४१ ॥
इन दोनों गुणस्थानों को प्राप्त कार्मणकाययोगी राशियां चूंकि सामान्यलोक आदि चारों लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहती है, इसलिए सूत्रमें 'ओघ' ऐसा पद कहा गया है ।
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