Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ३, ५१. ]
खेत्तागमे णाणमग्गणाखेत्तपरूवणं
[ ११७
कसाओ अकसाओ ? ण, भावकसायाभावं पेक्खिदूण तस्स वि अकसायत्तसिद्धीदो । बहुब्बीहिसमासं कादूग 'अकसाएसु' ति णिद्देसो किण्ण कदो ? ण, पज्जयपडिसेधे कदे कसायविरहिदथंभादीणं पि अकसायत्तप्पसंगादो। दव्त्रपडिसेहे कदे सो दोसो ण पावदे, एदेण णावएण ओसारिदपसज्जपडिसेहत्तादो । कस्स णयस्स एस ववहारो ? सद्दट्ठसंबंधस्स णिच्चत्तमिच्छंतसद्दणयस्स | ' अवगदवेद एसु ' चि दव्त्रणिदेसो वि एवं चैव वक्खाणेदव्यो । सेसं सुगमं ।
पाणावा देण
मिच्छादिट्ठी
एसा णिद्धारणे सत्तमी, मदि-सुदअण्णाणीणं मिच्छादिद्विवदिरित्ताणं सासणाणं पि
ओघं ॥ ५१ ॥
एवं कसायमग्गणा समत्ता ।
मदिअण्णाणि-सुदअण्णाणीसु
पाय कैसे कहा ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, यहांपर भावकषायके अभाव की विवक्षा से उपशान्तकषाय गुणस्थानके भी अकषायपनेकी सिद्धि हो जाती है ।
शंका- 'नहीं हैं कषाय जिनके' ऐसा बहुब्रीहि समास करके 'अकषायोंमें ' इस प्रकारका निर्देश क्यों नहीं किया ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, पर्यायके प्रतिषेध कर देनेपर कषायसे विरहित स्तभ्मादिकोंके भी अन्यथा अकषायताका प्रसंग प्राप्त हो जायगा । किन्तु, द्रव्यके प्रतिषेध करनेपर वह अतिप्रसंग दोष नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि, इसी ज्ञापक ( न्याय) के द्वारा आए हुए दोषप्रसंगका प्रतिषेध कर दिया गया ।
शंका- यह उक्त व्यवहार किस नयका है ?
समाधान - शब्द और अर्थके वाच्यवाचकसम्बन्धको नित्य माननेवाले शब्दनयका यह व्यवहार है ।
वेदमार्गणा के अन्त में दिये हुए ( नं. ४५ वें ) सूत्रके ' अपगतवेदियों में इस पद के द्रव्यनिर्देशका भी इसी प्रकारसे व्याख्यान करना चाहिए। शेष कथन सुगम है । इस प्रकार कषायमार्गणा समाप्त हुई ।
ज्ञानमार्गणा अनुवादसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानियोंमें मिथ्यादृष्टियोंका क्षेत्र ओघके समान सर्वलोक है ॥ ५१ ॥
यहां पर 'मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानियों में ' यह सप्तमी विभक्ति निर्द्धारणके अर्थ में है, क्योंकि, मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से व्यतिरिक्त सासादनगुणस्थानवर्ती भी मत्यज्ञानी और
१ ज्ञानानुवादेन मत्यज्ञानि श्रुताज्ञानिनां मिथ्यादृष्टिसासादन सम्यग्दृष्टीनी सामान्यक्ति क्षेत्रम् । स. सि. १,८,
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