Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१२२ ]
छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, ३, ५९.
एत्थ किमहं दव्वणियदेखणा कीरदे ? ण, संजमसामण्णे पहाणीकदे ओघं पडि विसेसाभावादो । पज्जवट्ठियणयपरूवणा एत्थ जाणिय वत्तव्वा ।
सजोगिकेवली ओघं ॥ ५९ ॥
एगजोगो किण्ण कदो ? ण, खेत्तं पडि सेसगुणट्ठाणेहिंतो सजोगिस्स विसे सोवलंभादो । जदि एवं, तो सगुणद्वाणाणं पि णाणाविहभेयभिण्णाणं पुध पुध सुत्तकरणं पावेदि तिचे ण, तेसिं पहाणीकयखेत्तजणिदविसेसाभावादो। एत्थ सेसा पज्जवडियणयपरूवणा सव्वा वत्तव्या ।
सामाइयच्छेदोवडावणसुद्धिसंजदेसु पमत्त संजद पहुडि जाव आणियहि त्ति ओघं ॥ ६० ॥
शंका- इस सूत्र में द्रव्यार्थिकनयकी देशना किस लिए जा रही है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, संयमसामान्यके प्रधान करनेपर ओप्रक्षेत्रप्ररूपणाकी अपेक्षा संयममार्गणाके अनुवादसे क्षेत्रप्ररूपणा में कोई विशेषता नहीं है । ive पर्यायार्थिकनयकी प्ररूपणा जान करके करना चाहिए ।
सयोगिकेवली भगवान् ओघके समान लोकके असंख्यातवें भागमें, लोकके असंख्यात बहुभागों में और सर्वलोकमें रहते हैं ॥ ५९ ॥
शंका- इन दोनों सूत्रोंका एक समास क्यों नहीं किया ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, क्षेत्रकी अपेक्षा शेष गुणस्थानोंसे सयोगिकेवली के क्षेत्र में विशेषता पाई जाती है ।
शंका- यदि ऐसा है, तो नाना प्रकारके भेदोंसे भिन्नताको प्राप्त शेष गुणस्थानों के भी पृथक् पृथक् सूत्रों की रचना प्राप्त होती है ?
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समाधान – नहीं, क्योंकि, शेष गुणस्थानोंकी पृथक् पृथक् प्रधानता करनेपर भी क्षेत्र-जनित विशेषताका अभाव है, इसलिए पृथक् पृथक् सूत्र - रचनाका प्रसंग नहीं प्राप्त होता है ।
यहांपर सभी गुणस्थानसम्बन्धी शेष सर्व पर्यायार्थिकनयकी क्षेत्रप्ररूपणा कहना
चाहिए ।
सामायिक और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयतों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती सामायिक और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत ओघके समान लोकके असंख्यातवें भाग में रहते हैं ॥ ६० ॥
१ × सामायिकच्छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयतानां चतुर्णां x x x सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १, ८.
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