Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१२६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, ३, ६७. दसणाणुवादेण चक्खुदंसणीसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव खीणकसायवीदरागछदुमत्था केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे॥६७॥
सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेयण-कसाय-वेउबियसमुग्घादगदा चक्खुदसणी मिच्छादिट्ठी तिण्हं लोगाणमसंखेजदिभागे, तिरियलोगस्स संखेजदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । एत्थ ओवट्टणा जाणिय कादव्या । एवं मारणंतियसमुग्वादगदा । णवरि तिरियलोगादो असंखेजगुणे त्ति वत्तव्वं । एवं चेव उववादगदाणं पि वत्तव्यं । अपजत्तकाले चक्खुदंसणाभावादो उववादो णत्थि त्ति णासंकणिज्जं, अपज्जत्तकाले वि खओवसम पडुच्च चक्खुदंसणुवलंभादो । जदि एवं, तो लद्धिअपज्जत्ताणं पि चक्खुदंसणित्तं पसज्जदे । तं च णत्थि, चक्खुदंसणिअवहारकालस्स पदरंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तपमाणप्पसंगादो ? ण एस दोसो, णिव्यत्तिअपज्जत्ताणं चक्खुदंसणमत्थि; उत्तरकाले णिच्छएण चक्खुदंसणोवजोगसमुप्पत्तीए अविणाभाविचक्खुदंसणखओवसमदंसणादो । चउरिदिय
दर्शनमार्गणाके अनुवादसे चक्षुदर्शनियोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषायवीतरागछमस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानी जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ६७ ॥
स्वस्थानस्वस्थान विहारवत्स्वस्थान वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धातगत चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। यहांपर अपवर्तना जानकर करना चाहिए। इसी प्रकार मारणान्तिकसमुद्धातगत चक्षुदर्शनियोंका क्षेत्र है। विशेष बात यह है कि मारणान्तिकसमुद्धातगत चक्षुदर्शनी जीव तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, ऐसा कहना चाहिए । इसी प्रकारसे उपपादगत चक्षुदर्शनियोंका भी क्षेत्र कहना चाहिए। अपर्याप्तकालमें चक्षुदर्शनका अभाव होनेसे यहांपर उपपादपद नहीं है, ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए, क्योंकि, अपर्याप्तकालमें भी क्षयोपशमकी अपेक्षा चक्षुदर्शन पाया जाता है।
शंका-यदि ऐसा है, तो लब्ध्यपर्याप्त जीवोंके भी चक्षुदर्शनीपनेका प्रसंग प्राप्त होता है। किन्तु लब्ध्यपर्याप्त जीवोंके चक्षुदर्शन होता नहीं है । यदि लब्ध्यपर्याप्त जीवोंके भी चक्षुदर्शनका सद्भाव माना जायगा, तो चक्षुदर्शनी जीवोंके अवहारकालको प्रतरांगुल के असंख्यातवें भागमात्र प्रमाणपनेका प्रसंग प्राप्त होगा?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, निवृत्त्यपर्याप्त जीवोंके चक्षुदर्शन होता है, इसका कारण यह है कि उत्तरकालमें, अर्थात् अपर्याप्तकाल समाप्त होनेके पश्चात् निश्चयसे चक्षुदर्शनोपयोगकी समुत्पत्तिका अविनाभावी चक्षुदर्शनका क्षयोपशम देखा जाता
१ दर्शनानुवादेन चक्षुर्दनिना मिध्यादृष्टयादिक्षीणकषायान्ताना लोकस्य संख्येयभागः । स. सि. १,८.
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