Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१, ३, ४८.] खेत्ताणुगमे कसायमग्गणाखेत्तपरूवणं
[११५ ग्गहकरणा । एदेण दव्य-पज्जवट्ठियणयपज्जायपरिणदजीवाणुग्गहकारिणो जिणा इदि जाणाविदं । सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउविय-मारणंतिय-उववादगदसासणसम्मादिट्ठि-असंजदसम्माइहिणो चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागे, अड्डाइजादो असंखेजगुणे खेत्ते अच्छंति । ' लोगस्स असंखेजदिभागे' इदि सुत्ते वुत्तं, तेण माणुसखेत्तस्स वि असंखेज्जदिभागे एदेहि होदव्यं, लोगत्तं पडि विसेसाभावादो ? ण एस दोसो। होदि एस दोसो, जदि पज्जवडियमस्सिदूण एस लोगसद्दो हिदो। किंतु दव्यट्ठियणयमवलंबिऊण द्विदत्तादो सबलोगसमूहस्स अखंडस्स वाचगो, तेण — लोगस्त असंखेजदिभागे' इदि सुत्तवयणं ण विरुज्झदे । जदि एवं, तो पज्जवट्ठियणयमवलंबिऊण द्विवक्खाणवयणं सुत्तेण असंबद्धं होदि त्ति ? ण, विसेसवदिरित्तजादीए अभावादो। विसेसालिंगिदसामण्णलोगो जेण सुत्तम्मि वुत्तो तेण लोगस्स अवयवभूदचत्तारि लोगे अस्सिदग जं वक्खाणं तण्ण सुत्तविरुज्झमिदि । एवं सम्मामिच्छाइट्ठीणं । णवरि मारणंतिय-उववादपदं णत्थि ।
नयी शिष्यों का अनुग्रह कर ही दिया गया है।
इस विवेचनसे यह बात बतलाई गई कि जिन भगवान् द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थक, इन दोनों नयस्वरूप पर्यायोंसे परिणत जीवोंके अनुग्रह करनेवाले होते हैं।
स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, वैक्रियिकसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, इन पदोंको प्राप्त चारों कषायवाले सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं।
शंका -' लोकके असंख्यातवें भागमें' इतना ही पद सूत्र में कहा है, इसलिए 'मानुषक्षेत्रके भी असंख्यातवें भागमें रहते हैं' ऐसा अर्थ होना चाहिए, क्योंकि, लोकत्वकी अपेक्षा सामान्यलोक, ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, तिर्यग्लोक और मनुष्यलोक, इन पांचों ही लोकों में विशेषताका अभाव है, अर्थात् समानता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है। यह दोष होता, यदि केवल पर्यायाथिकनयका ही आश्रय लेकर यह लोकशब्द स्थित होता। किन्तु यह लोकशब्द द्रव्यार्थिकनयका अव. लम्बन करके स्थित है, अतएव अखंड सर्वलोकके समूहका वाचक है, इसलिए 'लोकके असंख्यातवें भागमें' इस प्रकारका यह सूत्र-वचन विरोधको प्राप्त नहीं होता है।
शंका-यदि ऐसा है, तो पर्यायार्थिकनयका अवलम्बन करके स्थित व्याख्यान-वचन सूत्रके साथ असंबद्ध होगा?
समाधान नहीं, क्योंकि, विशेषसे व्यातिरिक्त जातिका अभाव पाया जाता है। चूंकि, विशेषसे आलिंगित सामान्यलोक सूत्र में कहा है, इसलिए लोकके अवयवभूत ऊर्ध्वलोक आदि चार लोकोंका आश्रय करके जो व्याख्यान किया गया है, वह सूत्रसे विरुद्ध नहीं है, अपि तु संबद्ध है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
www.jainelibrary.org