Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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-१०८ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, ३, ३७.
केवली कवाडगदो तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइजादा असंखेज्जगुणे ।
वेव्वियकायजोगीसु मिच्छाइट्टि पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्टी केवड खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे || ३७ ॥
एदस्सत्थो - सत्थाणसत्याण-विहार व दिसत्थाण- वेदण-कसाय वेडव्वियसमुग्धादगदा मिच्छादिट्ठी तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो
औदारिक मिश्रकाययोगियों में उपपादका अभाव बतलाया, उसका अभिप्राय यह है कि औदारिकमिश्रकाययोग तिर्यच और मनुष्योंकी अपर्याप्त दशामें ही होता है । और, अपर्याप्तदशाको प्राप्त सासादनसम्यग्दृष्टि या असंयतसम्यग्दृष्टि जीव मरणको प्राप्त नहीं होता है, जिससे कि वह पुनः औदारिकामिश्रकाययोगी सासादन सम्यग्दृष्टि या असंयतसम्यग्दृष्टि तिर्यच या मनुष्यों में उत्पन्न हो सके । अतएव उसमें सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके उपपादका अभाव बतलाना सर्वथा युक्तिसंगत ही है । पुनः, अथवा करके जो औदारिकमिश्रकाययोगियों में उनके उपपादका सद्भाव बतलाया गया, उसका अभिप्राय यह है कि पूर्वभवके शरीरको छोड़कर उत्तरभवके प्रथम समय में प्रवर्तनको उपपाद कहा गया है । वह उपपाद उत्पन्न होनेके प्रथम समय में ही होता है, अतएव यदि कोई औदारिककाययोगी या वैक्रिथिककाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि या असंयतसम्यग्दृष्टि जीव भरकर मनुष्य तिर्यचों में उत्पन्न होता है, तो उसके उत्पत्तिके प्रथम समय में औदारिक मिश्रकाययोगका सद्भाव पाया जायगा । इसीलिए कहा गया है कि सासादनसम्यग्दृष्टि या असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानके साथ युगपत् धारण किये गये आगामी भवसम्बन्धी शरीर के प्रथम समय में औदारिकामिश्र काययोगियोंके उपपादका सद्भाव पाया जाता है । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि उक्त दोनों कथनों में कोई पारस्परिक विरोध नहीं है, भेद केवल कथन-शैली व विवक्षाका ही है ।
कपाटसमुद्वातगत औदारिकमिश्रकाययोगी सयोगिकेवली भगवान् सामान्य लोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं ।
वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ।। ३७ ॥
इस सूत्र का अर्थ कहते हैं— स्वस्थान स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात ओर वैक्रियिकसमुद्धातगत वैक्रियिककाययोगी मिध्यादृष्टि जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग में, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग में और अढाईद्वीपसे
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