Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१०२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १, २९. . एदं पि सुन सुगम, पुर्व पविदत्तादो।
एवं कायमग्गणा समत्ता । जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंचवचिजोगीसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवली केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेजदिभागे ॥२९॥
एदस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे- पंचमणजोगि-पंचवचिजोगिमिच्छादिट्ठी सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-वेउब्वियसमुग्धादगदा सिहं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । वेउधियसमुग्घादगदाणं कधं मणजोग-वचिजोगाणं संभवो ? ण, तेसि पि णिप्पण्णुत्तरसरीराणं मणजोगवचिजोगाणं परावत्तिसंभवादो। मारणंतियसमुग्घादगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, गर-तिरियलोगेंहिंतो असंखेज्जगुणे । मारणंतियसमुग्घादगदाणं असंखेज्जजोयणायामेण ठिदाणं मुच्छिदाणं कधं मण-वचिजोगसंभवो ? ण, वारणामावादो अवत्ताणं णिम्भरसुत
यह सूत्र भी सुगम है, क्योंकि, इसका पहले प्ररूपण किया जा चुका है।
इसप्रकार कायमार्गणा समाप्त हुई। योगमार्गणाके अनुवादसे पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगियोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ २९ ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषीयसमुद्धात और वैकियिकसमुद्धातगत पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी मिथ्यावृष्टि जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं।
शंका-वैक्रियिकसमुद्धातको प्राप्त जीवोंके मनोयोग और वचनयोग कैसे संभव है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, निष्पन्न हुआ है विक्रियात्मक उत्तरशरीर जिनके, ऐसे जीबीके मनोयोग और वचनयोगोंका परिवर्तन संभव है।
मारणान्तिकसमुद्धातगत पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी मिथ्याष्टि जीव
लोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग, मनुष्यलोक और तिर्यलोकसे असंक्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं।
शंको-मारणान्तिकसमुद्धातको प्राप्त, असंख्यात योजन आयामसे स्थित और मूछित हुए संशी जीवोंके मनोयोग और वचनयोग कैसे संभव हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, बाधक कारणके अभाव होनेसे निर्भर (भरपूर) सोते १ योगानुवादेन वाङ्मानसयोगिना मिप्यादृष्टयाक्सियोगकेवल्यन्ताना लोकस्यासंख्येमागः । स. सि. १, ८.
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