Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ३, १९. कालगुणगारमवणिदे एगप्तमयसंचिदो मारणंतियरासी होदि । तस्स असंखेज्जा भागा विग्गहगदीए उप्पज्जति त्ति तस्स असंखेज्जे भागे घेत्तूण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागेण ओवट्टिदे सेढीए संखेज्जदिभागायामेण विदियदंडहिदरासी होदि ।
पंचिंदिय-पचिंदियपज्जत्तएसु मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ १९ ॥
एदस्स अत्थो-सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेदण-कसाय-बेउब्धियसमुग्धादगदपंचिंदियमिच्छाइट्ठी तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे तिरियलोगस्स संखेज्जदिमागे अड्डाइज्जादो असंखेजगुणे । मारणतिय उववादगदमिच्छाइट्ठी तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, णर-तिरियलोगेहिंतो असंखेजगुणे । एदाणं खेत्ताणमाणयणं पुव्यं व कादव्यं । सासणादीणमोघभंगो । एवं पज्जत्ताणं पि वत्तव्यं ।
सजोगिकेवली ओघं ॥ २० ॥ न्तिक उपक्रमणकालके गुणकारको निकाल लेने पर एक समयमें संचित हुई मारणान्तिक जीवराशि होती है। एक समय में संचित हुई इस मारणान्तिक जीवराशिके असंख्यात बहुभाग जीव विग्रहगतिसे उत्पन्न होते हैं, इसलिये उसके असंख्यात भागको ग्रहण करके पल्योपमके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जगश्रेणीके संख्यातवें भाग आयामरूपसे दूसरे दंडमें स्थित जीवराशि होती है।
पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानके जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं ॥ १९ ॥
अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धातको प्राप्त हुए पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादको प्राप्त हुए पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें और मनुष्यलोक तथा तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। इन क्षेत्रोंको पहलेके समान ले आना चाहिये। सासादनसम्यग्दृष्टि आदिका स्वस्थानस्वस्थान आदि पदगत क्षेत्र ओघसासादनसम्यग्दृष्टि आदिके स्वस्थानस्वस्थान आदि पदगत क्षेत्रके समान जानना चाहिये। इसीप्रकार पर्याप्तोंके क्षेत्रका भी कथन करना चाहिये।
सयोगिकेवलियोंका क्षेत्र सामान्यप्ररूपणाके समान है ॥ २० ॥
१पंचेन्द्रियाणां मनुष्यवत् । स. सि. १,८.
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