Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२८ ]
छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, ३, २.
सत्थमप्पसत्थं चेदि । तत्थ अप्पसत्थं बारहजोयणायामं णवजोयणवित्थारं सूचिअंगुलस्स संखेज दिमागबाहलं जासवण कुसुमसंकासं भूमिपव्वदादिदहणक्खमं, पडिवक्खर हियं सिंघणं वामंप्पभवं इच्छियखेत्तमेत्तविसप्पणं । जं तं पसत्थं तं पि एरिसं चेब, णवरि हंसधवलं दक्खिणं ससंभवं अणुकंपाणिमित्तं मारि - रोगादिपसमणक्खमं । जं तमणिस्सरणप्पयं तेजइयसरीरं तेणेत्थ अणधियारो । आहारसमुग्धादो णामपत्तिड्डीणं महारिसीणं होदि । तं च हत्थुस्सेधं हंसधवलं सव्वंगसुंदरं खणमेत्तेण अणेयजोयणलक्खगमणक्खमं अप्प डहयगमणं उत्तमंगसंभव, आणाकणिट्ठदाए असंजमबहुलदाए च लद्धप्पसरूवं । केवलिसमुग्धादो णाम दंड-कवाड - पदर - लोगपूरणभेएण चउव्विहो । तत्थ समुग्धादो नाम पुव्वसरीरबाहल्लेण तत्तिगुणबाहल्लेण वा सविक्खंभादो सादिरेयतिगुणपरिट्ठएण केवलिजीवपदेसाणं दंडागारेण देसूणचोदसरज्जुविसप्पणं । कवाड समुग्धादो नाम
दंड
भी दो प्रकारका है, प्रशस्ततैजस और अप्रशस्ततैजस । उनमें अप्रशस्तनिस्सरणात्मक तैजस्कशरीरसमुद्धात, बारह योजन लम्बा, नौ योजन विस्तारवाला, सूच्यंगुल के संख्यातवें भाग मोटाईवाला, जपाकुसुमके सदृश लालवर्णवाला, भूमि और पर्वतादिके जलाने में समर्थ, प्रतिपक्षरहित, रोषरूप इन्धनवाला, बायें कंधे से उत्पन्न होनेवाला और इच्छित क्षेत्रप्रमाण विसर्पण करनेवाला होता है तथा जो प्रशस्तनिस्सरणात्मक तैजस्कशरीरसमुद्धात है, वह भी विस्तार आदि में तो अप्रशस्त तैजसके ही समान है, किन्तु इतनी विशेषता है कि वह हंसके समान धवलवर्णवाला है, दाहिने कंधे से उत्पन्न होता है प्राणियोंकी अनुकम्पाके निमित्तसे उत्पन्न होता है और मारी, रोग आदिके प्रशमन करनेमें समर्थ होता है । इनमेंसे जो अनिस्सरणात्मक तैजसशरीरसमुद्धात है, उसका यद्दांपर अधिकार नहीं है ।
जिनको ऋद्धि प्राप्त नहीं हुई हैं, ऐसे महर्षियोंके आहारकसमुद्धात होता है । वह एक हाथ ऊंचा, हंसके समान धवल वर्णवाला, सर्वांगसुन्दर, क्षणमात्रमें कई लाख योजन गमन करने में समर्थ, अप्रतिहत गमनवाला, उत्तमांग अर्थात् मस्तकसे उत्पन्न होनेवाला तथा जो आज्ञाकी अर्थात् श्रुतज्ञानकी कनिष्ठता अर्थात् हीनता के होनेपर और असंयमकी बहुलता के होने पर जिसने अपना स्वरूप प्राप्त किया है, ऐसा है ।
दंड, कपाट, प्रतर और लोकपूरणके भेदसे केवलिसमुद्धात चार प्रकारका है । उनमें जिसकी अपने विष्कंभसे कुछ अधिक तिगुनी परिधि है ऐसे पूर्वशरीर के बाहल्यरूप अथवा पूर्वशरीर से तिगुने बाहल्यरूप दंडाकार से केवलीके जीवप्रदेशोंका कुछ कम चौदह राजु
१ सं. प. सूत्र ५९ ( प्र. भाग. पृ. २९७६ तृ. भाग प्रस्तावना शंका १८, पृ. २७.
२ अथोक्तविधिनाऽल्पसावद्यसूक्ष्मार्थमणप्रयोजनाऽऽहार कशरीर निर्वत्यर्थ आहारकसमुद्धातः । त. रा. वा. १, २०. गो. जी. २३६, २३७.
३ वेदनीयस्य बहुत्वादल्पत्वाश्चायुषोऽनाभोग पूर्वकमायुः समकरणार्थं दृष्यस्वभावत्वात् सुराद्रव्यस्य फेनवेगबुदबुदाविर्भावोपशमदेहस्थात्मप्रदेशानां बहिःसमुद्धातनं केवलिसमुद्धातः । त. रा. वा. १, २०
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