Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे जीवाणं
[ १, ३, २.
असंखेजदिभागे । कुदो ? ण ताव तसअपजत्तरासी विहरदि, तत्थ विहाय गदिणामकम्मस्स उद्याभावा । तसपज्जत्तरासिस्स वि संखेजदिभागो चेव विहरमाणरासी होदि । कुदो ? ममेदं बुद्धीए पडिगहिदखेत्तं सत्थाणं णाम । तत्तो वाहिं गंतूणच्छणं विहारख दिसत्थाणं । तत्थच्छणकाला सगावासे अवट्ठाणकालस्स संखेज्जदिभागो ति । दोहं लोगाणमसंखेज्जदिभागे । कुदो ? चत्तारि रज्जुबाहल्लं जगपदरं अधोलोगपमाणं होदि । तिष्णि रज्जुबाहलं जगपदरमुडुलोगपमाणं होदि । एदे दोणि वि लोगे तसपज्जत्तरा सिस्स संखेज्जदिभागेण संखेज्जघणंगुलगुणिदेण ओवट्टिदे सेढीए असंखेज्जदिभागो आगच्छदिति । संखेज्ज
लाख योजन चौड़े और एकलाख योजन ऊंचे क्षेत्रको मनुष्यलोक कहते हैं। एक लोकसामान्य के पांच भेद करनेका अभिप्राय यह है कि विवक्षित जीवके बताये गए क्षेत्रका ठीक परिमाण समझ में आजावे। जहां जिन जीवों का क्षेत्र सर्वलोक बताया जाये, वहां सामान्यलोकका ग्रहण करना चाहिए। जहां 'दो लोकोंका निर्देश किया जावे वहां अधोलोक और ऊर्ध्वलोक इन दो लोकोंका ग्रहण करना, जहां तीन लोकोंका निर्देश किया जाय, वहां अधोलोक, ऊर्ध्वलोक और तिर्यक्लोकका ग्रहण करना, तथा, जहां चार लोकका निर्देश किया जाय, वहां मनुष्यलोकको छोड़कर शेष चारों लोकोंका ग्रहण करना चाहिए । विहारवत्स्वस्थान मिथ्यादृष्टि जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं । चूंकि त्रसकायिक अपर्याप्तराशि तो विहार करती नहीं हैं, क्योंकि, त्रस कायिक अपर्याप्तों में विद्वायोगति नामकर्मका उदय नहीं होता है । त्रसकायिक पर्याप्तकों के भी संख्यातवें भागप्रमाण राशि ही विहार करनेवाली होती है, क्योंकि, 'यह मेरा है' इसप्रकार की बुद्धिसे स्वीकार किया गया क्षेत्र स्वस्थान है । और उससे बाहर जाकर रहने का नाम विहारवत्स्वस्थान है । उस विहारवत्स्वस्थान क्षेत्र में रहनेका काल अपने आवास में ( स्वस्थान में ) रहने के कालके संख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिये विहारवत्स्वस्थान मिथ्या दृष्टि जीव दोनों लोकोंके अर्थात् अधोलोक और ऊर्ध्वलोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं । इसका कारण यह है कि अधोलोकका प्रमाण चार राजु मोटा जगप्रतर है और ऊर्ध्वलोकका प्रमाण तीन राजु मोटा जगप्रतर है । संख्यात घनांगुलगुणित त्रसकायिक पर्याप्तराशिके संख्यातवें भागसे इन दोनों ही लोकोंके भाजित करने पर जगश्रेणीका असंख्यातवां भाग लब्ध आता है।
विशेषार्थ - - त्रसकायिक पर्याप्तक जवाँका प्रमाण क्षेत्रको अपेक्षा सूच्यंगुलके संख्यातवें भाग के वर्गरूप भागहारसे भाजित जगप्रतर प्रमाण बताया गया है । इस प्रमाणवाली पर्याप्त राशि भी संख्यातवें भाग प्रमाण ही विहारकरनेवाली राशि होती है । अब यदि एक पर्याप्त जीवकी मध्यम अवगाहना संख्यात घनांगुल प्रमाण मानकर उससे विहार करने वाली राशिके प्रमाणको गुणित भी किया जाय, तो भी उसका जगश्रेणी के असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहना सिद्ध होता है, इसलिए यह सिद्ध होता है कि विहारकरनेवाली त्रसराशि ऊर्ध्वलोक और अधोलोकके भसंख्यातवें भागमें रहती है, क्योंकि, इन दोनों लोकोंका प्रमाण जगच्छ्रेणी के वर्गसे भी बहुत अधिक है ।
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