Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ३, २.] खेत्ताणुगमे मिच्छाइटिखेत्तपरूवणं
[११ एदेहि दसहि विसेसणेहि जहासंभवं विसेसिदमिच्छाइद्विआदि-चोदसजीवसमासाणं खेत्तपरूवर्ण' कस्सामो । सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय-उववादेहि मिच्छाइट्ठी केवडि खेत्ते, सव्वलोगे । कुदो ? जेण सव्वजीवरासिस्स संखेजदिभागेणूणो सव्वो जीवपुंजो सत्थाणसत्थाणरासी वदे । वेदण-कसायसमुग्धादगदजीवा वि सव्वजीवरासिस्स संखेजदिभागमेत्ता । मारणंतियसमुग्घादगदजीवा वि सव्वजीवरासिस्स संखेजदिभागमेत्ता । कुदो ? एदेसि तिण्हं रासीणं अप्पणो जीविदस्स संखेजदिभागमेत्तसमुग्घादकालत्तादो । उववादरासी पुण सव्वजीवरासिस्स असंखेजदिभागो', एगसमयसंचयादो। तेणेदे पंच वि रासिणो अणंता, तदो सव्वलोगे भवंति । विहारवदिसत्थाणनिच्छादिट्ठी केवडि खेत्ते, लोगस्स
इसप्रकार स्वस्थानके दो भेद, समुद्धातके सात भेद और एक उपपाद, इन दश विशेषणोंसे यथासंभव विशेषताको प्राप्त मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानोंके क्षेत्रका निरूपण करते हैं । स्वस्थानस्वस्थान, घेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात, और उपपादकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? सर्व लोकमें रहते हैं।
शंका - किस कारणसे ?
समाधान- चूंकि, सर्व जीवराशिके संख्यातवें भागसे न्यून शेष सर्व जीवसमूह स्वस्थानस्वस्थान राशिरूप रहता है। तथा वेदनालमुद्धात और कषायसमुद्धातको प्राप्त हुए जीव भी सर्व जीवराशिके संख्यातवें भागप्रमाण हैं। मारणान्तिकसमुद्धातको प्रप्त हुए जीव भी सर्व जीवराशिके संख्यातवें भागप्रमाण हैं, क्योंकि, उक्त तीन राशियोंके समुद्धातका काल अपने जीवनकालके संख्यातवें भागप्रमाण है। उपपादराशि तो सर्व जीवराशिके असंख्यातवें भाग है, क्योंकि, उपपादराशिका संचय एक समयमें होता है। अतः स्वस्थानस्वस्थान आदि उक्त पांचों जीवराशियां अनन्त हैं, और इसीलिये वे सर्व लोकमें पाई जाती हैं।
विशेषार्थ-आगे मिथ्यादृष्टयादि चौदह गुणस्थानोंसे तथा मार्गणास्थानोंसे जीवोंक, क्षेत्र सामान्यलोक, अधोलोक, ऊर्ध्वलोक, तिर्यक्लोक और मनुष्यलोक, इन पांच प्रकारके लोकोंकी अपेक्षा बतलाया गया है । तीनसौ तेतालास धनराजुप्रमाण सर्वलोकको सामान्यलोक कहते हैं। एकसौ च्यानवे धनराजुप्रमाण या चार राजु मोटे जगप्रतरप्रमाण लोकके अधोभागको अधोलोक कहते हैं। एकसौ सेंतालीस घनराजु या तीन राजु मोटे जगप्रतरप्रमाण लोकके ऊर्ध्वभागको ऊर्ध्वलोक कहते हैं। ऊर्ध्वलोक और अधोलोकके मध्यमें स्थित, पूर्वपश्चिम दिशामें एक राजु चौड़े, उत्तर-दक्षिण दिशामें सात राजु लम्बे और एक लाख योजन ऊंचे क्षेत्रको तिर्यक्लोक या मध्यलोक कहते हैं। ढ़ाई द्वीपप्रमाण विस्तृत अर्थात् पैंतालीस
१ सामान्याधऊर्ध्वतिर्यग्मनुष्यलोकान् पंच संस्थाप्यालापः क्रियते । गो. जी. जी. प्र. टी. ५४३
२ मरदि असंखेज दिमं तस्सासंखा य विम्गहे होति । तस्सासंखं दूरे उववादे तस्स खु असखं ॥ गो. नी. ५४४.
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