Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ३, १७.] खेत्ताणुगमे एइंदियखेत्तपरूवणं
(८३ दियरासीदो घणंगुलस्स भागहारो किमप्पो बहुगो समो वा इदि ण णयदे ? जदि वेउब्धियरासीदो घणंगुलभागहारो संखेज्जगुणो होदि, तो माणुसखेत्तस्त संखेज्जदिभागे । अह असंखेज्जगुणो, तो असंखेज्जदिभागे । अह सरिसो, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे । ण च एत्थ एवं चेव होदि त्ति णिच्छओ अत्थि, तदो माणुसखेत्तं ण णयदि त्ति सिद्धं ।
बादरेइंदिय-बादरेइंदियपज्जत्ता सत्थाण-वेदण-कसायसमुग्घादगदा तिण्हं लोगाणं संखेज्जदिभागे, णर-तिरियलोएहितो असंखेज्जगुणे । तं जहा- मंदरमूलादो उवरि जाव सदर-सहस्सारकप्पो त्ति पंचरज्जु-उस्सेधेण लोगणाली समचउरंसा वादेण आउण्णा, तं जगपदरं कस्सामो । एक्कुणवंचासरज्जुपदराणं जदि एगं जगपदरं लब्भदि, तो पंचरज्जुपदराणं किं लभामो ति फलगुणिदमिच्छं पमाणेणोवट्टिदें वे पंचभागूण-एगूणसत्तरिरूवेहि
प्रमाण बतलाई है और उत्सेधघनांगुलका भागहार भी पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है, इसलिये विक्रिया करनेवाली एकेन्द्रिय जीवराशिसे उत्सेधधनांगुलका भागहार क्या छोटा है, या बड़ा है, या समान है, यह कुछ नहीं जाना जाता है। अब यदि एकेन्द्रिय वैक्रियिकराशिसे उत्सेधघनांगुलका भागहार संख्यातगुणा है, ऐसा लेते हैं तो विक्रिया करनेवाली एकेन्द्रिय जीवराशि मानुषक्षेत्रके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहती है, ऐसा अभिप्राय निकलता है । अथवा, विक्रिया करनेवाली एकेन्द्रिय जीवराशिसे उत्सेधघनांगुलका भागहार असंख्यातगुणा लेते हैं तो वह राशि मानुषक्षेत्रके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहती है, यह अभिप्राय होता है । और यदि विक्रिया करनेवाली एकेन्द्रिय जीवराशिसे उत्सेधधनांगुलका भागहार समान है, ऐसा लेते हैं तो वह राशि मानुषक्षेत्रके संख्यातवे भागप्रमाण क्षेत्रमें रहती है यह अभिप्राय होता है। परंतु यहांपर मानुषक्षेत्रका इतना ही भाग लिया गया है, ऐसा कुछ भी निश्चय नहीं है, इसलिये मानुषक्षेत्रके सम्बन्धमें कुछ भी नहीं जाना जाता है कि विक्रिया करनेवाली एकेन्द्रिय जीवराशि उसके कितने भागमें रहती है, यह सिद्ध हुआ।
स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात और कषायलमुद्धातको प्राप्त हुए बादर एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव सामान्यलोक आदि तीन लोकों के संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें तथा मनुष्यलोक और तिर्यग्लोकले असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। इसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है-मन्दराचल के मूल भागसे लेकर ऊपर शतार और सहस्रारकल्प तक पांच राजु उत्सेधरूपसे समचतुरस्र लोकनाली वायुसे परिपूर्ण है। अब उसे जगप्रतरके प्रमाणस्वरूप करते हैं- यदि उनवास प्रतरराजुओंके एक पटल का एक जगप्रतर प्राप्त होता है, तो पांच प्रतरराज औका क्या प्राप्त होगा, इसप्रकार त्रैराशिक करके एक जगप्रतरप्रमाण फलराशिसे पांच प्रतरराजुप्रमाण इच्छाराशिको गुणित करके उनंचास प्रतरराजुप्रमाण प्रमाण
१ प्रतिषु 'ण' इति पाठी नास्ति ।
२ प्रतिषु ' -दो चे' इति पाठः।
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