Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ३, १७. ]
खेत्तागमे एइंदियखेत्तपरूवणं
सासणसम्मादिट्ठि सम्मामिच्छादिट्ठि - असंजदसम्मादिट्ठीणं ओघमंगो । अणुदिसादि जाव सव्वट्टसिद्धिविमाणवासियदेवा असंजदसम्मादिट्टी केवड खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ १६ ॥
सत्थाणसत्याण-विहारव दिसत्थाण - वेदण-कसाय-वेउब्विय-मारणंतिय-उववादगदअसंजदसम्माइट्टिणो चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे अच्छंति त्ति वत्तव्वं । णवरि सव्वडे सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण- वेदण-कसाय - वेउब्वियपदेसु माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे । कथं १ सव्वट्ठे वेदण-कसायसमुग्धादाणं तेहिंतो समुपज्ज माणथोवविष्फुज्जणं पडुच्च तधोवदेसादो, कारणे कज्जावयारादो वा ।
एवं गदिमग्गणा समत्ता ।
इंदियाणुवादेण एइंदिया बादरा सुहुमा पज्जत्ता अपज्जत्ता केवाड खेत्ते, सव्वलोगें ॥ १७ ॥
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सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टियोंके स्वस्थानस्वस्थान आदि क्षेत्र ओघसासादनसम्यग्दृष्टि आदिके स्वस्थानस्वस्थान आदि क्षेत्रोंके समान होते हैं ।
नौ अनुदिशोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धिविमान तकके असंयतसम्यग्दृष्टि देव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं ।। १६॥
स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, वैक्रियिकसमुद्धात मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादको प्राप्त हुए उक्त असंयतसम्यग्दृष्टि देव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें और अढ़ाई ई । पसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, ऐसा यहां कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि सर्वार्थसिद्धिमें स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनांसमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धात इन स्थानों में देव मानुषक्षेत्र के संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं, क्योंकि, सर्वार्थसिद्धि में वेदनासमुद्धात और कषायसमुद्धातगत देवोंके उनके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाला स्तोक विस्फूर्जन होता है, अर्थात् उक्त दोनों समुद्धातों में आत्मप्रदेशोंका बाह्य विस्तार बहुत कम होता है, इस अपेक्षा उक्त प्रकारका उपदेश दिया है । अथवा, कारणमें कार्यके उपचार से उक्त प्रकारका उपदेश दिया है ।
इस प्रकार गतिमार्गणा समाप्त हुई ।
इन्द्रियमार्गणा के अनुवादसे एकेन्द्रियजीव, बादर एकेन्द्रियजीव, सूक्ष्म एकेन्द्रियजीव, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? सर्व लोकमें रहते हैं ॥ १७ ॥
१ इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियाणां क्षेत्रं सर्वलोकः । स. सि. १, ८,
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