Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ३, १५.
खेत्ताणुगमे देवखेत्तपरूवणं
कुदो वदे ? तिरियलोगस्सा संखेज्जदिभागे त्ति वक्खाणादो | मारणंतियसमुग्धादगदमिच्छाइट्ठी तिन्हं लोगान मसंखेज्जदिभागे तिरियलोगादो असंखेज्जगुणे, अड्डाइज्जादो वि असंखेज्जगुणे । सेसमोघं । णवरि असंजदसम्म इट्ठीणं उववादो णत्थि । वाणवेंतर- जोइसियाणं देवोघभंगो। णवर असंजदसम्माइट्ठीणं उववादो णत्थि ।
पशुचीसं असुराणं सेसकुमाराण दस घणू चेय |
वेंतर - जोदिसियाणं दस सत्त वणू मुणेयव्वा ॥ १८ ॥
म्हादो उस्सेहादो एत्थ ओगाहणखेत्तमाणेदव्वं । सोधम्मीसाणे सत्थान सत्थाणविहारव दिसत्थाण- वेदण- कसाय- वेउच्चियसमुग्धाद्गदमिच्छादिट्ठी चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागे माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणे । एत्थ सगलखेत्त परिक्खा भवणवासिय मंगो | अप्पणो ओहिखेत्तमेत्तं देवा विउव्वंति त्ति जं आइरियवयणं तण्ण घडदे, लोगस्स असं
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शंका- यह किस प्रमाणसे जाना ?
समाधान - उपपादपरिणत भवनवासी देव तिर्यग्लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं, इसप्रकार के व्याख्यान से उक्त कथन जाना जाता है ।
मारणान्तिकसमुद्धातको प्राप्त हुए मिथ्यादृष्टि भवनवासी देव सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में, तिर्यग्लोक से असंख्यातगुणे क्षेत्रमें और अढ़ाईद्वीप से भी असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । शेष कथन ओघप्ररूपणा के समान है । इतनी विशेषता है कि असंयतसम्यग्दृष्टियोंका भवनवासियों में उपपाद नहीं होता है । वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंका क्षेत्र देवसामान्य के क्षेत्र के समान है। इतनी विशेषता है कि असंयत सम्यग्दृष्टियोंका वानव्यन्तर और ज्योतिषियोंमें उपपाद नहीं होता है ।
भवनवासियोंके दश भेदों में से प्रथम भेद असुरकुमारों के शरीर की उंचाई पच्चीस धनुष' और शेष नौ कुमारोंके शरीरकी ऊंचाई दश धनुष है । तथा व्यन्तर देवों के शरीर की ऊंचाई दश धनुष और ज्योतिषी देवोंके शरीरकी ऊंचाई सात धनुष जानना चाहिये ॥ १८ ॥
इस उपर्युक्त उत्सेधसे यहां अवगाहनाक्षेत्र ले आना चाहिये । सौधर्म और ईशान कल्प में स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धतिको प्राप्त हुए मिथ्यादृष्टि देव सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में और मानुषक्षेत्र से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। यहांपर सर्व पदगत क्षेत्रों की परीक्षा भवनवासियोंके क्षेत्र के समान करना चाहिये । देव अपने अपने अवधिज्ञान के क्षेत्रप्रमाण विक्रिया करते हैं, इसप्रकार जो अन्य आचार्योंका वचन है वह घटित नहीं होता है,
१ त्रि. सा. २४९. तत्र चतुर्थचरणे ' दस सत्त सरीरउदओ दु' इति पाठः ।
२ सेसा वेंतरदेवाणिय-णिय-ओहीण जेचियं खेत्तं । प्रति तेचियं पि हु पत्तेकं विकरणबलेण । ति.प. ५,९६.
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