Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ३, ११.] खेत्ताणुगमे मणुस्सखेत्तपरूवणं
[७३ पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेजदिभागे ॥ १० ॥
एदस्स देसामासियसुत्तस्स अत्थो वुच्चदे- सत्थाण-वेदण-कसायसमुग्धादगदा केवडि खेत्ते ? चदुप्हं लेगाणमसंखेज्जदिभागे । कुदो ? उस्सेधघणंगुलं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागेण खंडिदमेत्तोगाहणत्तादो । अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे अच्छंति । विहारवदिसत्थाणं वेउब्धियसमुग्धादो य णत्थि । मारणंतिय-उववादगदा केवडि खेत्ते ? तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे । कुदो ? रासिस्स भागहारभूदा होदण जहाकमेण दोण्णि तिण्णि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागा लब्भंति त्ति । तिरिय-माणुसलोगादो असंखेज्जगुणे अच्छंति । सुगममेदं ।
मणुसगदीए मणुस-मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु मिच्छाइटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवली केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥११॥
पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं ॥ १० ॥
अब इस देशामर्शक सूत्रका अर्थ कहते हैं- स्वस्थान स्वस्थान, वेदनासमुद्धात और कषायसमुद्धातको प्राप्त हुए पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, उत्सेध घनांगुलको पल्योपमके असंख्यातवें भागसे खंडित करके जो एक भाग लब्ध आवे तत्प्रमाण पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्त जीवकी अवगाहना है । तथा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीव अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीवोंके विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्धात नहीं पाया जाता है। मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादको प्राप्त हुए पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सामान्यलोक आदि तीन लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, राशिके भागहाररूप होकर यथाक्रमसे अर्थात् मारणान्तिकसमुद्धातकी अपेक्षा दो वार पल्योपमके असंख्यातवें भाग और उपपादकी अपेक्षा तीन वार पल्योपमका असंख्यातवां भाग पाया जाता है। तथा तिर्यग्लोक और मनुष्यलोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादके प्राप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीव रहते हैं । इसप्रकार इसका व्याख्यान सुगम है।
मनुष्यगतिमें मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानमें जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं ॥ ११॥
१ मनुष्यगतौ मनुष्याणां मिथ्यादृष्टयाद्ययोगकेवल्यन्ताना लोकस्यासंख्येयभागः। स. सि. १,८.
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