Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ३, १२. ]
खेत्तागमे मणुस्सखेत्तपरूवणं
असंखेजगुणे । सम्मामिच्छाइट्ठी सत्थाणसत्याण-विहारव दिसत्थाण- वेदण-कसाय-वेउच्चियसमुग्धादपरिणदा केवड खेत्ते ? चदुण्हं लोगाणमसंखेजदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेजदिभागे । संजदासंजदा सत्थाणसत्थाण-विहारव दिसत्थाण- वेदण-कसाय - वेडव्वियसमुग्धादपरिणदा केवड खेते ? चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेजदिभागे । मारणंतिय समुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणे अच्छंति । पमत्तसंजद पहुडि जाव अजोगिकेवलित्ति मूलोघभंगो । एवं मणुसपअत्तसिणी । वरि मिच्छाइट्ठीणं सासणसम्माइट्टिभंगो | मणुसिणीसु असंजदसम्मादिडणं उववादो णत्थि । पत्ते तेजाहारसमुग्धादा णत्थि ।
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सजोगिकेवली केवड खेत्ते, ओघं ॥ १२ ॥
एदस्स सुत्तस्स अत्थो मूलोघमवधारिय लोगस्स असंखेजदिभागे, असंखेजेस वा भागे, सव्वलोगे वा त्ति वत्तव्यो ।
सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्य सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असं. ख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। स्वस्थान स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धातरूपसे परिणत हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टि मनुष्य कितने क्षेत्र में रहते हैं ? सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में और मनुष्यक्षेत्रके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं । स्वस्थान स्वस्थान विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात और वैक्रियिकसमुद्धात इन पदोंसे परिणत हुए संयतासंयत मनुष्य कितने क्षेत्र में रहते हैं ? सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में और मनुष्यक्षेत्र के संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं । मारणान्तिकसमुद्वातको प्राप्त हुए संयतासंयत मनुष्य सामान्यलोक आदि चार लोकोंके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में और मनुष्यक्षेत्रसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं । प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक मनुष्यों के यथासंभव स्वस्थानस्वस्थान आदि पदका क्षेत्र मूलोघप्ररूपणा के समान जानना चाहिये । इसीप्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में समझना चाहिये । इतनी विशेषता है कि मिथ्यादृष्टियोंके सासादन सम्यग्दृष्टियोंके समान कथन है | मनुष्यनियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टियों के उपपाद नहीं पाया जाता है । इसीप्रकार उन्हीं के प्रमत्तसंयत गुणस्थान में तैजससमुद्धात और आहारकसमुद्धात नहीं पाया जाता है ।
सयोगिकेवली भगवान् कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ओघप्ररूपणा में सयोगिजिनों का जो क्षेत्र कह आये हैं, तत्प्रमाण क्षेत्र में रहते हैं ॥ १२ ॥
इस सूत्र का अर्थ, मूलोघ सूत्रका निश्चय करके सयोगिकेवली जीव लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें, लोकके असंख्यात बहुभागप्रमाण क्षेत्र में अथवा सर्व लोक में रहते हैं, इसप्रकार कहना चाहिये ।
१ सयोगिकवलिना सामान्योक्तं क्षेत्रम् । स. सि. १, ८.
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