Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१, ३, ९.] खेत्ताणुगमे तिरिक्खखेत्तपरूवणं
[७१ सत्तादो। तं कधं ? संखेज्जवस्साउअतिरिक्खोवक्कमणकालेण आवलियाए असंखेज्जदिभाएण तेरासियकमेण भागे हिदे मरंतपंचिंदियतिरिक्खमिच्छाइद्विपमाणं होदि । एत्थ उवक्कमणकालागमणविधी चुच्चदे- संखेज्जावलियासु जदि आवलियाए असंखेज्जदिभागो णिरंतरुवक्कमणकालो लब्मदि, तो उवक्कमणाणुवक्कमणप्पयम्मि आयुहिदिम्हि केत्तियमुवक्कमणकालं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदमिच्छ मोवहिदे आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तुवक्कमणकालो लब्भदि । एवं संखेज्जवस्साउअरासीणं सांतराणमुवक्कमणकालो अण्णेसि पि आणेदव्यो । पुणो मारणंतियरासिमिच्छिय अवरं पलिदोवमस्स असंखेज्जीदभाग भागहारं ठविय रूवूणेण गुणिय रज्जुआयामेण द्विदरासिमिच्छिय अण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागेण भागहारो ठवेयव्यो । पुणो एत्थतणसंचयमिच्छिय मारणंतियउवक्कमणकालेण आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिय पुणो एदं रज्जुगुणिदसंखेज्जपदरंगुलेहि गुणिदे मारणंतियखेत्तं होदि । एदेण तिणि वि लोगे भागे हिदे
शंका- यह कैसे ?
समाधान -संख्यात वर्षकी आयुवाले तिर्यंचोंके उपक्रमणकालरूप आवलीके असंख्यातवें भागसे त्रैराशिक क्रमसे भाजित करने पर प्रत्येक समयमें मरनेवाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण होता है।
__अब यहां पर उपक्रमणकालके लानेकी विधिको कहते हैं-संख्यात आवलियोंके भीतर यदि आवलीका असंख्यातवां भागप्रमाण निरन्तर उपक्रमणकाल प्राप्त होता है, तो उपक्रमण और अनुपक्रमणरूप आयुकी स्थितिके भीतर कितने उपक्रमणकाल प्राप्त होंगे, इसप्रकार आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण फलराशिसे उपक्रमण और अनुपक्रमणात्मक आयुकी स्थितिरूप इच्छाराशिको गुणित करके और संख्यात आवलीप्रमाण प्रमाणराशिका भाग देने पर आवलीके असंख्यातवें भागमात्र उपक्रमणकाल प्राप्त होता है। इसीप्रकार संख्यात वर्षकी आयुवाली अन्य सान्तर राशियोंका भी उपक्रमणकाल ले आना चाहिये । पुनः यहां मारणान्तिक राशिका प्रमाण लाना है, इसलिये एक दूसरा पल्यापमके असंख्यात भागप्रमाण भागहार स्थापित करके और एक कम उसीसे गुणित करके राजुप्रमाण आयामकी अपेक्षा स्थित राशि लाना इच्छित है, इसलिये एक दूसरे पल्योपमके असंख्यातवें भागरूपसे भागहार स्थापित करना चाहिये । पुनः यहांपर मारणान्तिकसमुद्धातको प्राप्त जीवराशिका संचय इच्छित है, इसलिये मारणान्तिकसंबन्धी उपक्रमणकाल आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करके पुनः क्षेत्र लाने के लिये इस राशिको राजुसे गुणित संख्यात प्रतरांगुलोंसे गुणित करने पर मारणान्तिकक्षेत्रका प्रमाण होता है। इस क्षेत्रके प्रमाणसे सामान्यलोक आदि
- १ सोवकमाणुवकमकालो संखेज्जवासहिदिवाणे । आवलिअसंखभागो संखेज्जावलिपमा कमसो ॥ गो. जी. २६५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org