Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ३, ९.]
खेत्ताणुगमे तिरिक्खखेत्तपरूवणं भाएण भागे हिदे उप्पज्जमाणसासणसम्माइद्विरासी होदि । पुगो अवरेण आवलियाए असंखेज्जदिभागेण भागे हिदे रूवूणेण गुणिदे विग्गहगईए मारणंतिएण उप्पज्जमाणरासी होदि । संखेज्जा भागा मारणंतियं कादणुप्पज्जति त्ति के वि भणंति, एदं जाणिय वत्तव्यं । णत्थि एत्थ मज्झणियमो । तमावलियाए असंखेज्जदिमागेण मागे हिदे उज्जुदो आगच्छमाणरासी होदि । एदस्स पदरंगुलस्स संखेज्जदिभाएण गुणिदरज्जु गुणगारं ठविदे उववादखेत्तं होदि । एत्थ ओवट्टणा पुव्वं च । एवमसंजदसम्मादिहिस्स। णवरि उववादे संखेज्जा होति, पुव्वं बद्धायुगमणुस्ससम्मादिट्ठीहि विणा अण्णेसिं तत्थ उववादाभावादो। ओगाहणगुणगारो वि संखेज्जपदरंगुलमत्ता, एगपदरंगुलमेत्तो वा । सम्मामिच्छाइट्ठि-संजदासंजदाणं उववादं णत्थि ।।
पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्त-पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु मिच्छाइटिप्पहुडि जाव संजदासंजदा केवडि खेत्ते, लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ९॥ आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर उत्पन्न होनेवाली सासादनसम्यग्दृष्टि राशि होती है । पुनः एक दूसरे आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करनेपर और एक कम उक्त भागहारसे गुणित करने पर विग्रहगतिमें मारणान्तिकसमुद्धातसे उत्पन्न होनेवाली जीवराशि है। उत्पन्न होनेवाली राशिके संख्यात बहुभाग प्रमाण जीव मारणान्तिकसमुद्धात करके उत्पन्न होते हैं, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, इसलिये इसको जानकर कथन करना चाहिये । किन्तु इस विषयमें कोई मध्यम नियम नहीं है। इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर ऋजुगतिसे आनेवाली राशिका प्रमाण होता है। प्रतरांगुलके संख्यातवें भागसे राजुको गुणित करके जो लब्ध आवे उसे इस राशिका गुणकार स्थापित करने पर उपपादक्षेत्र होता है। यहां पर अपवर्तना पहले के समान जानना चाहिये। इसीप्रकार असंयतसम्यग्दृष्टि तिर्यंचोंका उपपाद जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि उपपादमें असं यतसम्यग्दृष्टि तिथंच संख्य.त ही होते हैं, क्योंकि, जिन मनुष्योंने सम्यग्दर्शनके पहले तिर्यंचायुका बंध कर लिया है ऐसे मनुष्य सम्यग्दृष्टियोंके विना दूसरे सम्यग्दृष्टियोंका तिर्यचों में उपपाद नहीं होता है। इनकी अवगाहनाका गुणकार भी संख्यात प्रतरांगुलप्रमाण अथवा एक प्रतरांगुलमात्र है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयत तिथंचोंके उपपाद नहीं होता है।
पंचेन्द्रियतियंच, पंचेन्द्रियतिथंच पर्याप्त और पंचेन्द्रियतिथंच योनिमती जीवोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानके तिर्यच कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं ॥ ९॥
१ प्रतिषु ‘रज्जुदो ' इति पाठः ।
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