Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
११] छक्खंडागमे जीवाणं
[१, ३, ३. पडिवज्जमाणजीवाणमसंखेज्जगुणत्तादो, उवसमसम्मत्तद्धावसेसे आउए उवसमसम्मत्तगुणं पडिवज्जंताण बहुवाणमभावादो, तत्तो तस्स संखेज्जगुणणियमाभावादो च । एत्थ उवरिमरासिस्स गुणगारो पुव्वुत्तो चेव होदि, देवरासिस्स पहाणत्तादो। उववादे पुण तिरिक्खरासी पहाणो। णवरि असंजदसम्माइट्ठि-उववादे देवा पहाणा, मारणंतिए तिरिक्खा पहाणा। सम्मामिच्छाइडिस्स मारणंतिय-उववादा णत्थि, तग्गुणस्स तदुहयविरोहित्तादो।
एवं संजदासंजदाणं । णवरि उववादो पत्थि, अपज्जत्तकाले संजमासंजमगुणस्त अभावादो। संजदासंजदाणमोगाहणगुणगारो घणंगुलं । मारणंतिए पदरंगुलं दादव्यं । वेगुब्बियपदेण सगरासिस्स असंखेज्जदिभागो आवलियाए असंखेज्जदिभागपडिभागेण । संजदासंजदाणं कधं वेउव्वियसमुग्धादस्स संभवो ? ण, ओरालियसरीरस्स विउव्वणप्पयस्स विण्हुकुमारादिसु दंसणादो । संजदासंजदेसु वि मारणंतियरासी ओघरासिस्स असंखेज्जदि
समाधान-नहीं, क्योंकि, मरण करनेवाले देवगतिसंबन्धी जीवोंसे उसी भयमें मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले जीव असंख्यातगुणे होते हैं। अथवा, उपशमसम्यक्त्वके कालप्रमाण आयुके अवशिष्ट रहनेपर उपशमसम्यक्त्व गुणको प्राप्त होनेवाले बहुत जीव नहीं पाये जाते हैं। और मारणान्तिकसमुद्धातके कालसे गुणस्थानका काल संख्यातगुणा होता है, ऐसा कोई नियम नहीं है।
यहांपर उपरिम राशिका गुणकार पूर्वोक्त ही है, क्योंकि, यहां देवराशिकी प्रधानता है। उपपादमें तो तिर्यंचराशि प्रधान है। इतनी विशेषता है कि असंयतसम्य. ग्दृष्टि गुणस्थानसंबन्धी उपपादमें देव प्रधान हैं। तथा असंयतगुणस्थानसबन्धी मारणान्तिक समुद्धातमें तिर्यंच प्रधान हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद नहीं होते हैं, क्योंकि, इस गुणस्थानका इन दोनों प्रकारकी अवस्थाओंके साथ विरोध है।
इसीप्रकार संयतासंयतोंका क्षेत्र जानना चाहिये । इतना विशेष है कि संयतासंयतोंके उपपाद नहीं होता है, क्योंकि, अपर्याप्त कालमें संयमासंयम गुणस्थान नहीं पाया जाता हैसंयतासंयतोंकी अवगाहनाका गुणकार घनांगुल है। मारणान्तिकसमद्धातमें प्रतगंगलरूप गुणकार देना चाहिये । वैक्रियिकपदसे आक्लीके असंख्यातवें भागरूप प्रतिभागके द्वारा भपनी राशिका असंख्यातवां भाग लेना चाहिये।
शंका-संयतासंयतोंके वैक्रियिकसमुद्धात कैसे संभव है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, विष्णुकुमार आदिमें विक्रियात्मक औदारिकशरीर देखा
१ आह चेदेकः जीवस्थाने योगभंगे सप्तविधकाययोगस्वामिप्ररूपणायामौदारिककाययोगः औदारिकमिअकाययोगश्च तिर्यङ्मनुष्याणा, वैक्रियिक काययोगो वैक्रियिकमिश्रकाययोगश्च देवनारकाणामुक्तः, इह तिर्यङ्मनुष्याणा. मपीत्युच्यते, तदिदमार्षविरुद्धं, इत्यत्रोच्यते-न, अन्यत्रोपदेशात् । व्याख्याप्रज्ञप्तिदंडकेषु शरीरभंगे वायोरौदारिकवैक्रियिकतैजसकार्मणानि चत्वारि शरीराण्युक्तानि, मनुष्याणां च । एवमप्यार्षयोस्तयाविरोधः? न विरोध; आभिप्रायकत्वात् । मीवस्थाने सर्वदेवनारकाणां सर्वकालवैक्रियिकदर्शनात् तद्योगविधिरित्याभिप्रायः। नैवं तिर्यङ्मनुभ्याणां लब्धिप्रत्यय मौकियिक सर्वेषां सर्वकालमस्ति कादाचित्कत्वाद् व्याख्याप्राप्तिदंडके वस्तित्वमात्रमभिप्रेत्योक्तं । त. रा. वा. २, ४९.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org