Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ३, ३.] खेत्ताणुगमे पमत्तसंजदादिखेत्तपरूवणं
[१५ भागो । कारणं पुव्वं परूविदं ।।
पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति जहण्णिया ओगाहणा आहुहरयणीओ', उक्कस्सिया पंचसद-पणवीसुत्तरधणूणि' । एदाओ दो वि ओगाहणाओ भरह-इरावएसु चेव होति, ण विदेहेसु, तत्थ पंचधणुस्सदुस्सेधणियमा। तत्तो थोवणुस्सेधो वा विदेहसंजदरासी जदो सव्वुक्कस्सो होदि, सो पधाणो, पंचधणुस्सदुस्सेहाविणाभावित्तादो। एत्थ अंगुलाणि कदे उस्सेहणवमभागो विक्खंभो त्ति कह परिट्ठयमद्धं करिय विक्खंभद्रेण गुणिय उस्से हेण गुणिदे संखेन्जाणि घणंगुलाणि जादाणि । एदेहि संखेजघणंगुलेहि अप्पप्पणो रासिं गुणिदे इच्छिदखेतं होदि । णवरि आहारसरीरस्स उस्सेधो एया रयणी, उस्सेहदसमभागो तस्स विक्खभो, दिव्वत्तादो । विहारे सत्थाणसमाणोगाहणमुहमच्छिण्णपउमणालसुत्तसंताणं व मूलाहारसरीराणमंतरे जीवपदेसाणमवाणादो। ण च सरीरादो-गदजीवपदेसाणं पुणो तत्थ पवेसाभावो, समुग्धादगदकेवलिजीव
जाता है। ""संयतासंयतोंमें भी मारणान्तिकसमुद्धातको प्राप्त जीवराशि ओघसंयतासंयत राशिके असंख्यातवें भागप्रमाण होती है। इसके कारणका प्ररूपण पहले कर आये हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक जीवोंकी जघन्य अवगाहना साढ़े तीन रत्निप्रमाण है और उत्कृष्ट अवगाहना पांचसौ पच्चीस धनुष है । ये दोनों ही अवगाहनाएं भरत और ऐरावत क्षेत्र में ही होती हैं, विदेहमें नहीं, क्योंकि, विदेहमें पांचसौ धनुषके उत्सेधका नियम है। अतः पांचसौ पच्चील धनुषसे कुछ कम उत्सेधवाली विदेहक्षेत्रस्थ संयतराशि चूंकि सबसे अधिक होती है, इसलिये यहांपर वह राशि प्रधान है, क्योंकि, विदेहस्थ संयतराशिका पांचसौ धनुषकी ऊंचाईके साथ अविनामावसंबन्ध पाया जाता है। यहांपर अंगुलोंमें घनफल लानेके लिये मनुष्योंके उत्सेधका नौवां भाग विष्कंभ होता है, ऐसा समझकर विष्कंभकी परिधिको आधा करके और विष्कंभके आधेसे गुणित करके उत्सेधसे गुणित करनेपर संख्यात घनांगुल हो जाते हैं। इन संख्यात घनांगुलोंसे अपनी अपनी राशिके गुणित करने पर इच्छित गुणस्थानसंबन्धी क्षेत्र होता है। इतनी विशेषता है कि आहारकशरीरका उत्सेध एक रत्निप्रमाण है। तथा उत्सेधके दशवें भागप्रमाण उसका विष्कंभ है, क्योंकि, यह शरीर दिव्यस्वरूप है । विहार में इस शरीरका मुख अर्थात् विष्कम और उत्सेध स्वस्थानस्वस्थानके समान अवगाहनाप्रमाण है, क्योंकि, मूल और आहारक शरीरके अन्तरालमें पद्मनालके अच्छिन्न सूत्रसंतान के समान जीवप्रदेशोंका अवस्थान पाया जाता है। शरीरसे निकले हुए जीवप्रदेशोंका फिरसे शरीर में प्रवेश नहीं होता है, सो भी
१ मध्यांगुलीकूर्परयोर्मध्ये प्रामाणिक: करः । बद्धमुष्टिकरी रनिरनिः स कनिष्ठिका । हलायु. कोष.
२ आहुट्ठहत्यपहुदी पणुवीसभहियपणसयधणूणि ॥ ति. प. १, २२. - ३ पंचसयचावतुंगा xxति. प. ४, ५८. ४ प्रतिषु 'जदा' इति पाठः।
५ प्रतिषु 'अंगुलकद' इति पाठः।
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