Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ३, ३.] खेत्ताणुगमे सासणादिखेत्तपरूवणं
[१३ एदेण सुत्तेण परिठ्ठयं कादूण विक्खंभचउब्भागेण गुणिदे जादाणि पदरंगुलाणि । पुणरवि उस्सेधेण गुणिदे संखेज्जाणि घणंगुलाणि जादाणि । पुव्वं व ओवट्टणा एत्थ कायव्वा । मारणंतिय-उववादगद-सासणसम्मादिदि-असंजदसम्मादिट्ठीणमेवं चेव वत्तव्वं । णवरि ओघरासिमावलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडेदूणेगभागो उववादं करेदि । तस्स वि असंखेजा भागा विग्गहगदीए उववादं करेंति त्ति ओघरासिस्स दो आवलियाए असंखेजदिभागा भागहारं ठवेदव्या । पुणो रूवूणावलियाए असंखेजदिभागो उवरि गुणगारो ठवेदव्यो । सेढीए संखेजदिभागायामविदियदंडट्ठियजीवे इच्छिय अवरो आवलियाए असंखेजदिभागो भागहारो ठवेयव्यो । उवरि घणंगुलस्स संखेजदिभागमवणिय पदरंगुलस्स संखेजदिभागं संखेजपदरंगुलाणि च गुणगारं ठविय किंचूणदिवड्डरज्जूहि गुणिय ओवट्टेयव्वं । मारणंतियस्स एवं चेव वत्तव्वं । णवरि अप्पणो रासिस्स असंखेजदिभागो मारणतियं करेदि । मारणंतियकालादो गुणकालस्स संखेजगुणत्तादो मारणंतियजीवा सगसव्वजीवेहितो संखेज्जगुणहीणा किण्ण होंति ? ण, मरंतदेवजीवहिंतो तम्हि चेव भवे मिच्छत्तं
इस सूत्रके नियमानुसार परिधि करके व्यासके चौथे भागसे गुणित करनेपर प्रतरांगुल हो जाते हैं। पुनः इन प्रतरांगुलोंको उत्सेधसे गुणित करनेपर संख्यात घनांगुल हो जाते हैं । यहांपर भी पहलेके समान अपवर्तना करना चाहिये। अर्थात् इन धनांगुलोंके प्रमाणघनांगुल करनेके लिये पांचसौके घनका भाग देना चाहिये।
मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादगत सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि. योंका इसीप्रकार कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि ओघ सासादनसम्यग्दृष्टि और भसंयतसम्यग्दृष्टि राशिको आवलीके असंख्यातवे भागसे खंडित करके जो एक भाग लब्ध आवे उतनी राशि उपपाद करती है । तथा इस उपपादराशिके असंख्यात बहुभाग प्रमाण जीव विग्रहगतिसे उपपाद करते हैं, इसलिये दो वार आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण ओघराशिका भागहार स्थापित करना चाहिये । तथा एक कम आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण ऊपर गुणकार स्थापित करना चाहिये । जगश्रेणीके संख्यातवें भाग लंबे दूसरे दंडमें स्थित जीवोंकी अपेक्षा फिर भी आवलीका असंख्यातवां भाग भागहार स्थापित करे और ऊपर घनांगुलके संख्यातवें भागको निकालकर उसके स्थानमें प्रतरांगुलके संख्यातवें भागप्रमाण और संख्यात प्रतरांगुलप्रमाण गुणकारको स्थापित करके, कुछ कम डेढ़ राजुसे गुणित करके अपवर्तित करना चाहिये, क्योंकि, मध्यलोकसे सौधर्मकल्प डेढ़ राजु ऊंचा है । मारणान्तिकसमुद्धातका भी इसीप्रकार कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि अपने अपने गुणस्थानसंबन्धी राशिके असंख्यातवें भागप्रमाण राशि मारणान्तिकसमुद्धात करती है।
- शंका-मारणान्तिकसमुद्धातके कालसे गुणस्थानका काल संख्यातगुणा है, इसलिए मारणान्तिकजीव अपने अपने गुणस्थानके सर्व जीवोंसे संख्यातगुणे हीन क्यों नहीं होते हैं ?
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