Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, ३, २. इच्छिदव्यो खीरकुम्भस्स मधुकुंभो व्य ।
__ तम्हा ओगाहणलक्खणेण सिद्ध लोगागासस्स ओगाहणमाहप्पमाइरियपरंपरागदोवदेसेण भणिस्सामो । तं जहा- उस्सेहघणंगुलस्स असंखेजदिभागमेत्ते खेत्ते सुहुमणिगोदजीवस्स जहण्णोगाहणा भवदि । तम्हि द्विदघणलोगमेत्तजीवपदेसेसु पडिपदेसमभवसिद्धिएहि अणंतगुणा, सिद्धाणमणंतभागमेत्ता होदण द्विदओरालियसरीरपरमाणूणं तं चेव खेत्तमोगासं जादि । पुणो ओरालियसरीरपरमाणूहितो अणंतगुणाणं तेजइयसरीरपरमाणूणं पि तम्हि चेव खेत्ते औगाहणा भवदि । पुनमणिदतेजइयपरमाणूहिंतो अणंतगुणा कम्मइयपरमाणू तेणेव जीवेण मिच्छत्तादिकारणेहि संचिदा पडिपदेसमभवसिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता तत्थ भवंति', तेसि पि तम्हि चेव खेत्ते ओगाहणा भवीद । पुणो
द्रव्योंकी सत्ता अन्यथा न बन सकनेसे क्षीरकुंभका मधुकुंभके समान अवगाहन धर्मवाला लोकाकाश है, ऐसा मान लेना चाहिए।
विशेषार्थ--जैसे क्षीरकुम्भका मधुकुम्भमें अवगाहन हो जाता है, अर्थात् मधुसे भरे हुए कलशमें तत्प्रमाणवाले धसे भरे हुए कलशका यदि दूध डाल दिया जाय, तो समस्त दध उसी में समा जाता है, ऐसी अवगाहन शक्ति देखी जाती है । उसीके समान आकाशकी भी ऐसी अवगाहना शक्ति है कि असंख्य प्रदेशी होते हुए भी उसमें अनन्त जीव और अनन्तानन्त पुद्गलोंका अवगाहन हो जाता है।
__इसलिए अब हम अवगाहन लक्षणसे प्रसिद्ध लोकाकाशके अवगाहन माहात्म्यको माचार्य-परम्परागत उपदेशके अनुसार कहते हैं। वह इस प्रकार है- उत्सेधधनांगुलके असंख्यात माग मात्र क्षत्रमें सूक्ष्म निगादिया जीवकी जघन्य अवगाहना है। उस क्षेत्रमें स्थित घनलोक मात्र जीवके प्रदेशों से प्रत्येक प्रदेशपर अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागमात्र होकरके स्थित औदारिकशरीरके परमाणुओंका वही क्षेत्र अवकाशपनेको प्राप्त होता है । पुनः औदारिकशरीरके परमाणुओंसे अनन्तगुणे तैजस्कशरीरके परमाणुओंकी भी उसी ही क्षेत्रमें अवगाहना होती है । तथा पूर्वमें कहे गए तैजस परमाणुओंसे अनन्तगुणे, उसी ही जीवके द्वारा मिथ्यात्व, अविरति भादि कारणोंसे संचित और प्रत्येक प्रदेशपर अभव्यसिद्धोंसे अमन्त गुणे तथा सिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र कर्मपरमाणु उस क्षेत्रमें रहते हैं, इसलिए उन कर्मपरमाणुओंकी भी उसी ही क्षेत्रमें
१ सुहमणिगोदअपज्जत्तयस्स जादस्स तदियसमयम्हि । अंगुल असंखभागं जहण्णयं । गो. जी. ९५. २ प्रतिषु जदि ' इति पाठः ।
३ प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं प्राक्तैजसात् । अनन्तगुणे परे। त. सू. २, ३८-३९ । परमाणूहि अणंताहिं वग्गणसपणाहु होदि सका हु। ताहि अणंतहिं णियमा समयपबद्धो हवे एको ॥ ताणं समयपबद्धा सेटिअसंखेज्जभागगाणिदकमा। णतेण य तेजदुगा परं परं होदि मूहुमं खु ॥ गो. जी. २४५, २४६.
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