Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ३, २. सह विरोहो, एत्थ वि दोसु दिसासु चउधिहविक्खंभदंसणादो। ण च सत्तरज्जुबाहल्लं करणाणिओगसुत्तविरुद्धं, तस्स तत्थ विधिप्पडिसेधाभावादो । तम्हा एरिसो चेव लोगो त्ति घेत्तव्यो ।
एत्थ चोदगो भणदि- कधमणंता जीवा असंखेज्जपदेसिए लोए अच्छति । जदि एक्कम्हि आगासपदेसे एक्को चेव जीवो अच्छदि तो असंखेज्जजीवाणं थत्ती होदूण अवरेसिं जीवाणमलोगे अच्छणं पावेदि, तेसिमभावो वा। ण च तेसिमभावो अत्थि, 'अणंता जीवा' त्ति अणेण सुत्तेण सह विरोधा । ण च अलोगागासे वि सेसाणमच्छणमत्थि, लोगालोगविहायस्स अभावावत्तीदो । ण च एगागासपदसे एगो जीवो अच्छदि, 'एगजीवस्स जहण्णोगाहणा वि अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता' ति चेदणाखेत्तविधाणे परूविदत्तादो । तम्हा लोगमज्झम्हि जदि ति, तो लोगस्स असंखेज्जदिभागमेत्तेहि
चेव जीवहि होदधमिदि ? ...... एत्थ परिहारो वुच्चदे- णेदं घडदे, पोग्गलाणं पि असंखेज्जत्तप्पसंगादो । कधं ?
तीसरी गाथाके साथ भी विरोध नहीं आता है, क्योंकि, यहांपर भी पूर्व और पश्चिम इन दोनों ही दिशाओं में गाथोक्त चारों ही प्रकारके विष्कम्भ देखे जाते हैं। तथा लोकके उत्तर. दक्षिणभागमें सर्वत्र सात राजुका बाहल्य भी करणानुयोगसूत्रके विरुद्ध नहीं है, क्योंकि, करणानुयोगसूत्रमें सात राजुके बाहल्यके विधान व प्रतिषेधका अभाव है। इसलिए अभी कहे गए आकारवाला ही लोक है, ऐसा स्वीकार करना चाहिए।
शंका-यहांपर शंकाकार कहता है कि असंख्यात प्रदेशवाले लोकमें अनन्त संख्यावाले जीव कैसे रह सकते हैं? यदि एक आकाशके प्रदेशमें एक ही जीव रहे, तो भी सर्व लोकमें असख्यात जीवोंकी स्थिति होकर अवशिष्ट अन्य जीवोंका अलोकाकाशमें रहना प्राप्त होता है, अथवा उन शेष जीवोंका अभाव प्राप्त होता है। किन्तु उनका अभाव है नहीं, क्योंकि, उक्त कथनका ‘जीव अनन्त हैं ' इस सूत्रके साथ विरोध आता है। और न अलोका. काशमें भी शेष जीवोंका रहना बनता है, क्योंकि ऐसा माननेपर, लोक और अलोकके विभागका अभाव प्राप्त होता है। दूसरी बात यह भी है कि आकाशके एक प्रदेशमें एक जीव रहता भी नहीं है, क्योंकि, 'एक जीवकी जघन्य अवगाहना भी अंगुलके असंख्यातवें भागमात्र होती है ' ऐसा वेदनाखंडके वेदनाक्षेत्रविधान नामक अनुयोगद्वारमें प्रतिपादन किया गया है। इसलिये यदि लोकक मध्यमें जीव रहते हैं, तो वे लोकके असंख्यातवें भागमात्र ही होना चाहिए?
समाधान- अब यहांपर इस शंकाका परिहार कहते हैं- शंकाकारका उक्त कथन घटित नहीं होता है, क्योंकि, उक्त कथनके मान लेनेपर पुद्गलोंके भी असंख्यातपनेका प्रसंग भा जाता है।
शंका-पद्गलोंके असंख्यात होने का प्रसंग कैसे आ जावेगा? १ म प्रता' छत्ती', अ प्रती · बत्ती', क प्रतौ ' वती' इति पाठः ।
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