Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ३, २. ]
खेत्तागमे लोगावगाहणसत्तिपरूवणं
[ २३
एगेगलोमागासपदे मे एक्केक्को जदि परमाणू अच्छदि, तो लोगमेत्ता परमाणू भवति, सेसपोग्गलाणमभावो चेव, अणवगासाणमत्थित्तविरोधा । ण च तेहि लोगमंत्तपरमाणूहि कम्म-सरीर-घड-पड-त्थंभादिसु एगो वि णिष्पज्जदे, अणंताणंतपरमाणुसमुदयसमागमेण विणा एक्किस्से असण्णासण्णियाए' वि संभवाभावा । होदु चे ण, सयल पोग्गलदव्यस्स अणुवलद्धिप्प संगादो, सच्चजीवाणमक्कमेण केवलणाणुष्पत्तिप्पसंगादो च । एवमइप्पसंगो मा होदि ति अवगेज्झमाणजीवाजीवसत्तष्णहाणुववत्तीदो अवगाहणधम्मिओ लोगागासोति
समाधान - इस शंकाका परिहार इसप्रकार है- लोकाकाशके एक एक प्रदेश में यदि एक एक ही परमाणु रहे, तो लोकाकाशके प्रदेशप्रमाण ही परमाणु होंगे, और शेष पुगलोंका अभाव हो जायगा, क्योंकि, जिन पुगलोंको अवकाश नहीं मिला, उनका अस्तित्व मानने में विरोध आता है। तथा उन लोकमात्र परमाणुओंके द्वारा कर्म, शरीर, घट, पट और स्तम्भ आदिकों में से एक भी वस्तु निष्पन्न नहीं हो सकती है, क्योंकि, अनन्तानन्त परमाणुओं के समुदायका समागम हुए विना एक अवसन्नासन्न संज्ञक भी स्कंधका होना संभव नहीं है ।
शंका- एक भी वस्तु निष्पन्न नहीं होवे, तो भी क्या हानि है ?
समाधान - नहीं, क्योंकि, ऐसा माननेपर समस्त पुद्गल द्रव्यकी अनुपलब्धिका प्रसंग आता है, तथा सर्व जीवोंके एक साथ ही केवलज्ञानकी उत्पत्तिका भी प्रसंग प्राप्त होता है । विशेषार्थ -- यहांपर समस्त पुद्गलद्रव्य की अनुपलब्धिका जो दूषण दिया है, उसका अभिप्राय यह है कि घट, पटादि कार्यों के देखनेसे ही कारणरूप पुद्गल परमाणुओं के अस्तित्वका अनुमान होता है । शंकाकारके कथनानुसार जब किसी भी वस्तुकी निष्पत्ति न होगी, तो उन कार्योंके निष्पादक कारणधर्मवाले परमाणु हैं, यह कैसे जाना जा सकेगा ? अतएव घट, पटादि कार्योंकी निष्पत्तिके अभाव में पुद्गलद्रव्यके अभावका प्रसंग आता है। तथा, सर्व जीवों के एक साथ केवलज्ञानकी उत्पत्तिके प्रसंग प्राप्त होनेका जो दूषण दिया गया है, उसका अभिप्राय यह है कि जब लोकाकाशके प्रदेश प्रमाण असंख्यात ही परमाणु होंगे, तो उनसे प्रथम तो एक कार्मणशरीरकी उत्पत्ति ही नहीं होगी । यदि थोड़ी देर के लिए यह कल्पना कर भी ली जाय कि असंख्यात परमाणुओंसे एक कार्मणशरीर या कर्मपिंड बन भी जाता हो, जो कि जीवक ज्ञानादिक गुणोंके आवरण करनेमें समर्थ है, तो भी वह किसी एक ही जीवके गुणोंका आवरण कर सकेगा, अनन्त जीवोंका नहीं । इस प्रकार से भी सभी जीवोंके आवरक कर्मका अभाव होनेसे केवलज्ञानकी उत्पत्तिका प्रसंग प्राप्त होता है । अथवा, किसी एक जीवके द्वारा उस कार्मणशरीरका शुक्लध्यानाग्निसे विनाश किये जानेपर समस्त ही जीवोंके केवलज्ञानकी उत्पत्ति का प्रसंग आता है ।
इस प्रकार का अतिप्रसंग दोष न होवे, इस लिए अवगाद्यमान जीव और अजीव
१ परमाणुहि अनंताणंतहि बहुविहेहिं दव्जेहिं । ओसण्णासण्णो चि ॥ ति. प. १, १०२. अनन्तानन्तपरमाणुसंघात परिमाणादाविर्भूता उत्संज्ञासंज्ञका । त. रा. वा. ३, ३८.
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