Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ३, २.]
खेत्ताणुगमे लोगपमाणपरूवणं मूलं मझेण गुणं हसहिदद्धमुस्सेधकदिगुणिदं ।
घणगणिदं जाणेज्जो मुइंगसंठाणखेत्तम्हि ॥ १० ॥ ण च एदस्स लोगस्स पढमगाहाए सह विरोहो, एगदिसाए वेत्तासण-मुदिंगसंठाणदसणादो। ण च एत्थ झल्लरीसंठाणं णस्थि, मज्झम्हि सयंभुरमणोदहिपरिक्खित्तदेसेण चंदमंडलमिव समंतदो असंखेज्जजोयणरुदेण जोयणलक्खबाहल्लेण झल्लरीसमाणत्तादों। ण च दिटुंतो दारिद्रुतिएण सव्वहा समाणो, दोण्हं पि अभावप्पसंगादो । ण च तालरुक्खसंठाणमेत्थ ण संभवइ, एगदिसाए तालरुक्खसंठाणदंसणादो । ण च तइयाए गाहाए
मूल के प्रमाणको मध्यके प्रमाणसे गुणा करो, पुनः मुखसहित अर्ध भागको उत्सेधकी कृति अर्थात् वर्गसे गुणा करो। ऐसा करने पर मृदंगके आकारवाले क्षेत्रमें प्राप्त घनफल जानना चहिये ॥ १०॥
विशेषार्थ-- ऊर्ध्वलोक, बीच में मोटा और ऊपर नीचे सकड़ा होनेसे मृदंगाकारक्षेत्र कहलाता है। इस मृदंगाकार ऊर्ध्वलोकका मूलभागसम्बन्धी विस्तार एक राजुसे मध्यभागके विस्तार पांच राजुको गुणा करनेपर १४५ = ५ हुए । उसमें मुखविस्तार एक राजुको जोड़कर ५+ १ = ६ आधा करनेपर ६ २ = ३ रहे। इसे ऊंचाई सातके वर्गले ७४७ = ४९ गुणा करनेपर ४९ x ३ = १४७ हुए । यही एकसौ सेंतालीस राजु ऊर्ध्वलोकका घनफल है। इसप्रकार अधोलोक और ऊर्ध्वलोकके घनफलोंको जोड़ देनेपर १९६ + १४७ = ३४३ तीनसौ तेतालीस राजु सर्व लोकका घनफल होता है।
और, उक्त प्रकारके इस लोकका 'हेट्ठा मज्झे उरिं वेत्तासण-झल्लरी-मुइंगणिभो' इत्यादि इस प्रथम गाथाके साथ भी विरोध नहीं है, क्योंकि, एक दिशामें वेत्रासन और मृदंग का आकार दिखाई देता है। यदि कहा जाय कि अभी बताये गए लोकमें (मध्य भागपर) झल्लरीका आकार नहीं है, सो भी नहीं, क्योंकि, मध्यलोकमें स्वयम्भूरमणसमुद्रसे परिक्षिप्त, तथा चारों ओरसे असंख्यात योजन विस्तारवाला और एक लाख योजन मोटाई वाला यह मध्यवर्ती प्रदेश चन्द्रमंडल की तरह झल्लरीके समान दिखाई देता है। और दृष्टान्त सर्वथा दान्तिके समान नहीं होता है, अन्यथा दोनोंके ही अभावका प्रसंग आ जायगा। यदि कहा जाय कि ऊपर बताये गए इस लोकके आकारमें तालवृक्षके समान आकार संभव नहीं है, सो भी नहीं, क्योंकि, एक दिशासे देखने पर तालवृक्षके समान संस्थान दिखाई देता है। और 'लोयस्स य विस्वम्भो चउप्पयारो य होइ णायव्यो' इत्यादि इस
१ जंबू. प. ११, ११०.
१ पुष्वावरेण लोगो मूले माझे तहेव उवरिम्मि । वरवेत्तासण शहरि-मुदिंगसंठाणपरिणामो ॥ उत्तर दक्षिणपासे संठाणो टंकछिण्णगिरिस रिसो। अहवा कुलगिरिस रिसो आयदच उरंसदरणमिओ || जबू. प ४, ४-५. ३ म प्रत्योः 'सस्सहा' इति पाठः ।
४ प्रतिषु । -मेत 'इति पाठः।
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