Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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( २४ )
षट्खंडागमकी प्रस्तावना
यहां प्रश्न यह उपस्थित होता है कि उक्त ३४३ घनराजुप्रमाण केवल असंख्यात प्रदेशात्मक अत्यन्त परिमित क्षेत्रमें अनन्त जीव व अनन्त पुद्गल परमाणु कैसे रह सकते हैं ! इसका उत्तर यह है कि जीवों और पुद्गल - परमाणुओं में अप्रतिघातरूपसे अन्योन्यावगाहन शक्ति विद्यमान है जिसके कारण अंगुलके असंख्यातवें भाग में भी अनन्तानन्त जीवोंका और जीवके भी प्रत्येक प्रदेशपर अनन्त औदारिकादि पुद्गल परमाणुओंका अस्तित्व बन जाता है ।
ओघ अर्थात् गुणस्थानोंकी अपेक्षा जीवोंका क्षेत्र ४ सूत्रों में बतला दिया गया है कि मिथ्यादृष्टी जीव सर्वलोक में व अयोगिकवली और शेष सासादनसम्यग्दृष्टि आदि समस्त बारह गुणस्थानोंमेंसे प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव लोकके असंख्यातवें भाग में, और सयोगिकेवली लोकके असंख्यातवें भाग, असंख्यात बहु भागोंमें, तथा सर्वलोक में रहते हैं । धवलाकारने इन सूत्र - वचनोंको एक ओर atrina नाना अवस्थाओंका विचार करके, और दूसरी ओर सूक्ष्मतर क्षेत्रमानके लिये लोकको पांच विभागों में बांटकर बड़े विस्तार से समझाया है ।
क्षेत्रावगाहनाकी अपेक्षासे जीवोंकी तीन अवस्थाएं हो सकती है ( १ ) स्वस्थान (२) समुद्वात और (३) उपपाद । स्वस्थान भी दो प्रकारका है - अपने स्थायी निवासके क्षेत्रको स्वस्थानस्वस्थान, और अपने विहारके क्षेत्रको विहारवत्स्वस्थान कहते हैं । जीवके प्रदेशोंका उनके स्वाभाविक संगठन से अधिक फैलना समुद्धात कहलाता है । वेदना और पीड़ाके कारण जीव- प्रदेशों के फैलनेको वेदनासमुद्बात कहते हैं । क्रोधादि कषायों के कारण जीव- प्रदेशोंके विस्तारको कषायसमुद्घात कहते हैं । इसी प्रकार अपने स्वाभाविक शरीरके आकारको छोड़कर अन्य शरीराकार परिवर्तनको वैक्रियिकसमुद्धात, मरने के समय अपने पूर्व शरीरको न छोड़कर नवीन उत्पत्तिस्थान तक जीवप्रदेशोंके विस्तारको मारणान्तिक, तैजसशरीरको अप्रशस्त व प्रशस्त विक्रियाको तैजसमुद्घात, ऋद्धिप्राप्त मुनियोंके शंका निवारणार्थ जीवप्रदेशोंके प्रस्तारको आहारकसमुद्वात, और सर्वज्ञताप्राप्त केवलकेि प्रदेशोंका शेष कर्मक्षय-निमित्त दंडाकार, कपाटाकार, प्रतराकार, व लोकपूरणरूप प्रस्तारको केवलिसमुद्धात कहते हैं- जीवका अपनी पूर्व पर्यायको छोड़कर तीरके समान सीधे, व एक, दो तीन मोड़े लेकर अन्य पर्यायके ग्रहणक्षेत्र तक गमन करनेको उपपाद कहते हैं । इन्हीं दश - अर्थात् (१) स्वस्थानस्वस्थान ( २ ) विहारवत्स्वस्थान ( ३ ) वेदनासमुद्धात (४) कषायसमुद्धात (५) वैक्रयिकसमुद्धात (६) मारणान्तिकसमुद्धात (७) तैजससमुद्धात (८) आहारकसमुद्धात (९) केवलि - समुद्धात और (१०) उपपाद अवस्थाओं की अपेक्षासे यथासम्भव जीवके भिन्न भिन्न गुणस्थानों और मार्गणास्थानोंका क्षेत्रप्रमाण इस क्षेत्ररूपणा में बतलाया गया है ।
सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम क्षेत्रमानके लिये धवलाकारने पांच प्रकारसे लोकका ग्रहण किया है (१) समस्त लोकं या सामान्य लोक जो ७ राजुका घनप्रमाण है; (२) अधोलोक जो १९६ घनराजुप्रमाण है, (३) ऊर्ध्वलोक जो १४७ घनराजुप्रमाण है ( ४ ) तिर्यक्लोक या मध्यलोक
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