Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, ३, २.
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जहा उद्देसो तहा णिद्देसो ' त्ति कट्टु ओघणिसट्टमुत्तरमुत्तं भणदिओघेण मिच्छाइट्ठी केवडि खेत्ते, सव्वलोगे ॥ २ ॥ एदस्य सुत्तस्स अत्थो बुच्चदे । तं जहा - ओघणिसो आदेसवुदासट्ठो । मिच्छासो सगुणद्वाणपडिसेहो । केवडि खेते इदि पुच्छा सुत्तस्स पमाणत्तप्पदुपायणफला' । सव्वलोगे इदि खेत्तपमाणणिद्देसो । एत्थ लोगे त्ति वृत्ते सत्तरज्जूंर्ण घणो घेतव्वो । कुदो ? एत्थ खेपमाणाधियारे -
१०]
'जिस प्रकार से उद्देश किया जाता है, उसी प्रकार से निर्देश होता है ' इस न्यायके अनुसार ओघनिर्देशके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं
पल्लो सायर सूई पदरो य घणंगुलो य जगसेटी । लोयपदरो य लोगो अट्ठ दु माणा मुणेयव्वा ॥ ५ ॥
ओघनिर्देशकी अपेक्षा मिध्यादृष्टि जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? सर्व लोक में रहते हैं ॥ २ ॥
इस सूत्र का अर्थ कहते हैं । वह इसप्रकार है- सूत्रमें ' ओघ' इस पदका निर्देश, आदेश प्ररूपणा के निराकरण के लिए है । 'मिथ्यादृष्टि ' इस पदका निर्देश, शेष गुणस्थानोंके प्रतिषेधके लिए है । ' कितने क्षेत्रमें रहते हैं ' इस पृच्छाका फल सूत्रकी प्रमाणता प्रतिपादन करना है ।' सर्वलोकमें ' इस पद से क्षेत्र के प्रमाणका निर्देश किया है । यहां सूत्रमें 'लोक ऐसा सामान्य पद कहनेपर सात राजुओंका घनात्मक लोक ग्रहण करना चाहिए। क्योंकि, यहां क्षेत्रप्रमाणाधिकार में
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पल्योपम, सागरोपम, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जगश्रेणी, लोकप्रतर और लोक, ये आठ मान जानना चाहिए ॥ ५ ॥
प. १, शलाका
१ विवक्षित... जीवैर्वर्तमानकाले विवक्षितपदविशिष्टत्वेनावष्टव्याकाशः क्षेत्रं । गो. जी. जी. प्र. टी. ५४३. २ सामान्येन तावत् मिथ्यादृष्टीनां सर्वलोकः । स. सि. १, ८. मिच्छा उ सव्वलोए ॥ पञ्चसं. २, २६. ३ प्रतिषु केबडिया ' इति पाठः ।
४ म प्रत्योः 'सुत्तसुपमाणतं पदुप्पायण ' इति पाठः ; 'अ-आ-क' प्रतिषु ' सुत्तस्स पमाणचं पदुप्पायण ' इति पाठः ।
५ जगसेटीए सत्तमभागो रज्जू पभासते । ति. प. १,१३२.
६ जगसेढिघणपमाणो लोयायासी सपंचदव्वट्ठिदो । ति प १, ९१. चउदस रज्जू लोओ बुद्धिकओ होइ सतरज्जुघणो । कर्म. ५ कर्म. ९७.
९३ - १३०; विरलीकृत्य
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७ ति. प. १, ९३. त्रि. सा. ९२. पल्यापमस्य सागरोपमस्य च स्वरूपं ति. स. सि. ३, ३८; त. रा. वा. ३०, ३८. अद्धापल्यस्यार्धच्छेदेन प्रत्येक मद्धापल्यप्रदानं कृत्वा अन्योन्यगुणिते यावंतश्छेदास्तावद्भिराकाशप्रदेशैर्मुक्तावली
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