Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१२) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, ३, २. एदाओ सुत्तगाहाओ अप्पमाणत्तं पावेंति ति ?
एत्थ परिहारो वुच्चदे । एत्थ लोगे त्ति वुत्ते पंचदव्याहारआगासस्सेव गहणं, ण अण्णस्स । ' लोगपूरणगदो केवली केवडि खेत्ते, सव्वलोगे' इदि वयणादो । जदि लोगो सत्तरज्जुघणपमाणो ण' होदि तो ' लोगपूरणगदो केवली लोगस्स संखेजदि भागे' इदि भणेज। ण च अण्णाइरियपरूविदमुदिंगायारलोगस्स पमाणगं पेक्खिऊण संखेज्जदिभागत्तमसिद्धं, गणिज्जमाणे तहोवलंभादो । तं जहा- मुदिंगायारलोयस्स सूई चोद्दसरज्जुआयदं एगरज्जुविक्खंभं वर्ल्ड लोगादो अवणिय पुध हुवेदव्यं । एवं ठविय तस्स फलाणयणविहाणं भणिस्सामो । तं जहा-एदस्स मुहतिरियवदृस्स एगागासपदेसबाहल्लस्स परिठओ एत्तिओ होदि ३४३ । इममद्धेऊण विक्खंभर्तण गुणिदे एत्तियं होदि ५३ । अधोलोगभागमिच्छामो त्ति सत्तहि रज्जूहि गुणिदे खायफलमेत्तियं होदि ५३३३ । पुणो णिस्सईखेत्तं चोद्दसरज्जुआयदं दो खंडाणि करिय तत्थ हेहिमखंडं घेत्तूण उट्ठे पाटिय पसारिदे
ये ऊपर कही गई सूत्रगाथाएं अप्रमाणताको प्राप्त होती हैं ?
समाधान-अब यहां ऊपरकी शंकाका परिहार कहते हैं। इस प्रकृत सूत्रमें 'लोक' ऐसा पद कहनेपर पांच द्रव्योंके आधारभूत आकाशका ही ग्रहण किया है, अन्यका नहीं, क्योंकि, 'लोकपूरणसमुद्धातगत केवली कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्व लोकमें रहते हैं। इसप्रकारका सूत्रवचन है। यदि लोक सात राजुके घनप्रमाण नहीं है, तो 'लोकपूरणसमुद्धातगत केवली लोकके संख्यातवें भागमें रहते हैं' इसप्रकार कहना चाहिये। और अन्य आचार्यों के द्वारा प्ररूपित मृदंगाकार लोकके प्रमाणको देखकर अर्थात् उसकी अपेक्षासे, लोकपूरण समुद्धातगत केवलीका घनलोकके संख्यातवें भागमें रहना असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, गणना करनेपर मृदंगाकार लोकका प्रमाण घनलोकके संख्यातवें भाग पाया जाता है। वह इसप्रकार है-चौदह राजुप्रमाण आयत, एक राजुप्रमाण विस्तृत और गोल आकारवाली, ऐसी मृदंगाकार लोककी सूचीको लोकके मध्यसे निकाल करके पृथक् स्थापन करना चाहिये । इसप्रकारसे स्थापित करके अब उसके फल अर्थात् घनफलको निकालनेका विधान कहते हैं। वह इसप्रकार है-मुखमें तिर्यपसे गोल और आकाशके एक प्रदेशप्रमाण बाहल्यवाली इस पूर्वोक्त सूचीकी परिधि ३११ इतनी होती है। (देखो आगे गाथा नं. १४) इस परिधिके प्रमाणको आधा करके, पुनः उसे एक राजुविष्कम्भके आधेसे गुणा करनेपर, उसके क्षेत्रफल का प्रमाण ३५३ इतना होता है। अब हमें लोकके अधोभागका घनफल लाना इष्ट है, इसलिये उस क्षेत्रफलको सात राजुओंसे गुणा करने पर सात राजुप्रमाण लम्बी और एक राजुप्रमाण चौड़ी उक्त गोलसूचीका घनफल ५४३५ इतना होता है। फिर सूचीरहित चौदह राजु लम्बे लोकरूप क्षेत्रके मध्यलोकके पाससे दो खंड करके उनमेंसे नीचे के अर्थात् अधोलोकसम्बन्धी
१ प्रतिषु ' पमाणेण ' इति पाठः ।
२म प्रत्योः 'ढवयव्वं' इति पाठः।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org