Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, ३, १.] खेत्ताणुगमे णिदेसपरूवणं
[९ समिञ्च दविहं, लोगागासमलोगागासं चेदि। लोक्यन्त उपलभ्यन्ते यस्मिन जीवादिद्रव्याणि स लोकः । तद्विपरीतोऽलोकः। अधवा देसभेएण तिविहो, मंदरचूलियादो उवरिमुड्ढलोगो, मंदरमूलादो हेट्ठा अधोलोगो, मंदरपरिच्छिण्णो मज्झलोगो' त्ति । जधा दव्याणि द्विदाणि तधावबोधो अणुगमो। खेत्तस्स अणुगमो खेत्ताणुगमो, तेण खेत्ताणुगमेण सरीरस्सेव दुविहो णिद्देसो । णिदेसो पदुप्पायणं कहणमिदि एयट्ठो। ओघेण द्रव्यार्थिकनयावलम्बनेन, आदेसेण पर्यायार्थिकनयावलम्बनेन चेदि द्विविधो निर्देशः। किमहमुभयथा णिदेसो कीरदे ? न, उभयनयावस्थितसत्त्वानुग्रहार्थत्वात् । ण तइओ णिदेसो अत्थि, णयद्दयसंट्ठियजीववदिरित्तसोदाराणं असंभवादो।
शंका-क्षेत्र कितने प्रकारका है ?
समाधान- द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा क्षेत्र एक प्रकारका है। अथवा, प्रयोजनके आश्रयसे क्षेत्र दो प्रकारका है, लोकाकाश और अलोकाकाश । जिसमें जीवादि द्रव्य अवलोकन किये जाते है, पाये जाते हैं, उसे लोक कहते हैं। इसके विपरीत जहां जीवादि द्रव्य नहीं देखे जाते हैं, उसे अलोक कहते हैं । अथवा, देशके भेदसे क्षेत्र तीन प्रकारका है । मंदराचल (सुमेरुपर्वत) की चूलिकासे ऊपरका क्षेत्र ऊर्ध्वलोक है। मंदराचलके मूलसे नीचेका क्षेत्र अधोलोक है। मंदराचलसे परिच्छिन्न अर्थात् तत्प्रमाण मध्यलोक है।
जिस प्रकारसे द्रव्य अवस्थित हैं, उस प्रकारसे उनको जानना अनुगम कहलाता है। क्षेत्रके अनुगमको क्षेत्रानुगम कहते हैं। उससे अर्थात् क्षेत्रानुगमसे शरीरके (शरीर सामान्य और मुखादि अंगोपांग विशेष ) निर्देशके समान दो प्रकारका निर्देश किया गया है। निर्देश, प्रतिपादन और कथन, ये सब एकार्थक हैं। ओघसे अर्थात् द्रव्यार्थिकनयके अवलम्बनसे, और आदेशसे अर्थात् पर्यायार्थिकनयके अवलम्बनसे निर्देश दो प्रकारका है।
शंका-दोनों नयोंकी अपेक्षासे निर्देश किसलिये किया जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, द्रव्यार्थिकनयमें अवस्थित शिष्योंके अनुग्रहके लिये ओघनिर्देश किया गया है। तथा पर्यायार्थिकनयमें अवस्थित शिष्योंके अनुग्रहके लिये आदेशनिर्देश किया गया है।
इन दोनों निर्देशोंके अतिरिक्त और कोई तीसरा निर्देश नहीं पाया जाता है, क्योंकि, दोनों प्रकारके नयों में अवस्थित जीवोंके अतिरिक्त अन्य प्रकारके श्रोताओंका अभाव है, अतएव दोनों ही प्रकारसे निर्देश किया गया है।
१ मेरुरयं त्रयाणां लोकानां मानदंडः । अस्याधस्तलादधोलोकः । चूलिकामूलादूर्ध्वमूर्ध्वलोकः । मध्यमप्रमाणस्तिय विस्तीर्णस्तिर्यग्लोकः । त. रा. वा. ३, १०. इह च बहुसमभूमिभागे रत्नप्रमामागे मेरुमध्ये अष्टप्रदेशो रुचको भवति, तस्योपरितनप्रस्तरस्योपरिष्टान्नव योजनशतानि यावज्जोतिश्चक्रस्योपरितलस्तावत् तिर्यग्लोकस्ततः परत ऊर्द्धभागस्थितत्वात् ऊर्ध्वलोको देशोनसप्तरज्जुप्रमाणो रुचकस्याधस्तनप्रस्तरस्याधो नव योजनशतानि यावचावत्तिर्यग्लोकः, ततः परतोऽधोभागस्थितत्वादधोलोकः सातिरेकसप्तरज्जुप्रमाणः, अधोलोकोप्रलोकयोर्मध्ये अष्टादशयोजनशतप्रमाणस्तिर्यग्भागस्थितत्वात् तिर्यग्लोक इति । स्थानां, ३, २. टीका.
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