Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
३. विषय-परिचय
जीवस्थानकी पूर्व प्रकाशित दो प्ररूपणाओं- सत्प्ररूपणा और द्रव्यप्रमाणानुगममें क्रमशः जीवका स्वरूप, गुणस्थान व मार्गणास्थानानुसार भेद, तथा प्रत्येक गुणस्थान व मार्गणास्थानसंबंधी जीवोंका प्रमाण व संख्या बतलाई जा चुकी है । अत्र प्रस्तुत भागमें जीवस्थानसंबंधी आगेकी तीन प्ररूपणाएं प्रकाशित की जा रही हैं- क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम और कालानुगम ।
१ क्षेत्रानुगम
क्षेत्रानुगममें जीवों के निवास व विहारादिसंबंधी क्षेत्रका परिमाण बतलाया गया है । इस संबंध में प्रथम प्रश्न यह उठता है कि यह क्षेत्र है कहां ? इसके उत्तरमें अनन्त आकाश के दो विभाग किये गये हैं । एक लोकाकाश और दूसरा अलोकाकाश । लोकाकाश समस्त आकाशके मध्य में स्थित है, परिमित है और जीवादि पांच द्रव्योंका आधार है । उसके चारों तरफ शेष समस्त अनन्त आकाश अलोकाकाश है । उक्त लोकाकाशके स्वरूप और प्रमाणके संबंध में दो मत हैं । एक मतके अनुसार यह लोकाकाश अपने तलभाग में सातराजु व्यासवाला गोलाकार है । पुनः ऊपरको क्रमसे घटता हुआ अपनी आधी उंचाई अर्थात् सात राजुपर एक राजु व्यासवाला रह जाता है । वहांसे पुनः ऊपरको क्रमसे बढ़ता हुआ साढ़े तीन राजु ऊपर जाकर पांच राजु व्यासप्रमाण हो जाता है और वहां से पुनः साढ़े तीन राजु घटता हुआ अपने सर्वोपरि उच्च भागपर एक राजु व्यासवाला रह जाता है । इस मत के अनुसार लोकका आकार ठीक अधोभागमें, वेत्रासन, मध्यमें झल्लरी ओर ऊर्ध्वभाग में मृदंगके समान हो जाता है । किन्तु धवलाकारने इस मतको स्वीकार नहीं किया है, क्योंकि, ऐसे लोकमें जो प्रमाणलेाकका घनफल जगश्रेणी अर्थात् सात राजु के घनप्रमाण कहा है, वह प्राप्त नहीं होता । यह बात स्पष्टतः दिखलाने के लिये उन्होंने अपने समयके गणितज्ञानकी विविध और पूर्व प्रक्रियाओं द्वारा इस प्रकारके लोकके अधोभाग व उर्ध्वभागका घनफल निकाला है जो कुल १६४,३६ घनराजु होनेसे श्रेणीके घन अर्थात् ३४३ घनराजुसे बहुत हीन रह जाता है । इसलिये उन्होंने लोकका आकार पूर्व-पश्चिम दो दिशाओं में तो ऊपर की ओर पूर्वोक क्रमसे घटता बढ़ता हुआ, किन्तु उत्तर-दक्षिण दो दिशाओं में सर्वत्र सात राजु ही माना है । इस प्रकार यह लोक गोलाकार न होकर समचतुरस्राकार हो जाता है और दो दिशाओंसे उसका आकार वेत्रासन, झल्लरी और मृदंग के सदृश भी दिखाई दे जाता है । ऐसे लोकका प्रमाण ठीक श्रेणीका घन ७ = ७ × ७ x ७ = ३४३ घनराजु हो जाता है । यही लोक जीवादि पांचों द्रव्योंका क्षेत्र है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org