Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
विषय-परिचय
(२७) . इन एकेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीवोंके अतिरिक्त सयोगिकेवली भगवान् भी प्रतरसमुद्घातके समय लोकके असंख्यात बहु भागोंको और लोकपूरणसमुद्धातके समय सर्व लोकाकाशको स्पर्श करते हैं । तथा उपपाद और मारणान्तिकसमुद्धातवाले त्रसजीवोंका भी त्रसनालीके बाहर अस्तित्व पाया जाता है । वह इस प्रकारसे कि लोकके अन्तिम वातवलयमें स्थित कोई जीव मरण करके विग्रहगतिद्वारा त्रसनालीके अन्तःस्थित त्रसपर्यायमें उत्पन्न होनेवाला है वह जीव जिस समय मरण करके प्रथम मोड़ा लेता है, उस समय त्रसपर्यायको धारण करने पर भी वह त्रसनालीके बाहर है, अतएव उपपादकी अपेक्षा त्रसजीव त्रसनालीके बाहर रहता है । इसी प्रकार त्रसनालीमें स्थित किसी ऐसे त्रसजीवने जिसे कि त्रसनालीके बाहर मरकर उत्पन्न होना है, मारणान्तिकसमुद्धातके द्वारा त्रसनालीके बाहरके आकाश-प्रदेशोंका स्पर्श किया, तो उस समय भी त्रसजीवका अस्तित्व त्रसनालीके बाहर पाया जाता है, (देखो. पृ. २१२)। उक्त तीन अवस्थाओंको छोड़कर शेष त्रसजीव त्रसनालीके बाहर कभी नहीं रहते हैं।
इस प्रकार चौदह गुणस्थानों और चौदह मार्गणास्थानोंमें उक्त स्वस्थानादि दश पदोंको प्राप्त जीवोंका स्पर्शनक्षेत्र इस स्पर्शनप्ररूपणामें बतलाया गया है।
स्पर्शनप्ररूपणाकी कुछ विशेष बातें सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका क्षेत्र निकालते हुए प्रसंगवश असंख्यात द्वीप-समुद्रोंके ऊपर आकाशमें स्थित समस्त चंद्रोंके प्रमाणको भी गणितशास्त्र के अनेक अदृष्टपूर्व करणसूत्रोंके द्वारा निकाला गया है और साथ ही यह बतलाया गया है कि एक चंद्रके परिवार में एक सूर्य, अठासी ग्रह, अट्ठाईस नक्षत्र और छयासठ हजार नौसौ पचहत्तर कोडाकोडी ( ६६९७५००००००००००००००) तारे होते हैं । इस चारों प्रकारके परिवारके प्रमाणसे चन्द्रबिम्बोंकी संख्याको गुणा कर देनेपर समस्त ज्योतिष्क देवोंका प्रमाण निकल आता है।
____ इसी बीचमें धवलाकारने ज्योतिष्क देवोंके भागहारको उत्पन्न करनेवाले सूत्रसे अवलम्बित युक्तिके बलसे यह सिद्ध किया है कि चूंकि-स्वयंभूरमणसमुद्रके परभागमें भी राजुके अर्धच्छेद पाये जाते हैं, इसलिए स्वयंभूरमणसमुद्रके परभागमें भी असंख्यात द्वीप-समुद्रोंके व्यास-रुद्ध योजनोंसे संख्यात हजार गुने योजन आगे जाकर तिर्यग्लोककी समाप्ति होती है, अर्थात् स्वयंभूरमणसमुद्रकी बाह्यवेदिकाके परे भी पृथिवीका अस्तित्व है; वहां भी राजुके अर्धच्छेद उपलब्ध होते हैं; किन्तु वहांपर ज्योतिषी देवोंके विमान नहीं हैं। (देखो पृ. १५०-१६०)
इसी प्रकरणमें उन्होंने अपनी उक्त बातकी पुष्टि करते हुए जो उदाहरण दिए हैं, उनसे एकदम तीन ऐसी बातोंपर प्रकाश पड़ता है, जिनसे पता चलता है कि वे बातें वीरसेनाचार्यके पूर्ववर्ती दिगम्बर साहित्यमें प्रतिष्ठित नहीं थीं और सर्व प्रथम इन्हींने उनकी प्रतिष्ठा की है ।
बे नधीन प्रतिष्ठित तीनों बातें इस प्रकार हैं(१) 'संख्यात आवलियोंका एक अन्तर्मुहूर्त होता है। इस प्रचलित और सर्वमान्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org