Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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(२८)
षट्खंडागमकी प्रस्तावना
मान्यता को भी ' एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुहुत्तेण कालेन ' ( द्रव्यप्र. सू ६ ) इस सूत्रके आधारसे ' अन्तर्मुहूर्त' इस पदमें पड़े हुए अन्तर् शब्दको सामीप्यार्थक मानकर यह सिद्ध किया है कि अन्तर्मुहूर्त का अभिप्राय मुहूर्तसे अधिक कालका भी हो सकता है ।
(२) दूसरी बात आयतचतुरस्र लोक-संस्थानके उपदेशकी है, जिसका अभिप्राय समझने के लिये इसी भागके पृ. ११ से २२ तकका अंश देखिए । उससे ज्ञात होता है कि धवलाकार के सामने विद्यमान करणानुयोगसम्बन्धी साहित्य में लोकके आयतचतुरस्राकार होनेका विधान या प्रतिषेध कुछ भी नहीं मिल रहा था, तो भी उन्होंने प्रतरसमुद्वातगत केवलीके क्षेत्रके साधनार्थ कही गईं दो गाथाओंके ( देखो इसी भागके पृ. २०-२१ ) आधारपर यही सिद्ध किया है कि लोकका आकार आयतचतुष्कोण है, न कि अन्य आचार्योंसे प्ररूपित १६४,३३५६ घनराजु प्रमाण मृदंगके आकार । साथ ही उनका दावा है कि यदि ऐसा न माना जायगा तो उक्त दोनों गाथाओंको अप्रमाणता और लोकमें ३४३ घनराजुओं का अभाव प्राप्त होगा । इसलिए लोकका आकार आयतचतुरस्र ही मानना चाहिए ।
( ३ ) तीसरी बात स्वयंभूरमणसमुद्र के परभागमें पृथिर्वाके अस्तित्व सिद्ध करनेकी है जिसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है । ( देखो पृ. १५५-१५८ तक )
इस प्रकार बड़े जोरदार शब्दों में उक्त तीनों बातोंका समर्थन करनेके पश्चात् भी उनकी निष्पक्षता दर्शनीय है । वे लिखते हैं- ' यह ऐसा ही है ' इस प्रकार एकान्त हठ पकड़ करके असद् आग्रह नहीं करना चाहिए, क्योंकि, परमगुरुओंकी परम्परासे आए हुए उपदेशको युक्तिके, बलसे अयथार्थ सिद्ध करना अशक्य है, तथा अतीन्द्रिय पदार्थों में छद्मस्थ जीवोंके द्वारा उठाए गए विकल्पोंके अविसंवादी होनेका नियम नहीं है । अत एव पुरातन आचार्योंके व्याख्यानका परित्याग न करके हेतुवाद (तर्कवाद) के अनुसरण करनेवाले व्युत्पन्न शिष्यों के अनुरोधसे तथा अव्युत्पन्न शिष्यजनों के व्युत्पादन के लिये यह दिशा भी दिखाना चाहिए । ( देखो. पू. १५७-१५८ )
तिर्यंचोंके स्वस्थानस्वस्थानक्षेत्रका निकालते हुए द्वीप और समुद्रोंका क्षेत्रफल अनेक करणसूत्रों द्वारा पृथक् पृथक् और सम्मिलित निकालने की प्रक्रियाएं दी गई हैं, और साथ ही यह भी सिद्ध किया गया है कि इस मध्यलोक में कितना भाग समुद्रसे रुका हुआ है । (देखो. पू. १९४-२०३) कायमार्गणा में बादर पृथिवीकायिक जीवोंके स्पर्शन- क्षेत्रको बतलाते हुए रत्नप्रभादि सातों पृथिवियोंकी लम्बाई चौड़ाईका भी प्रमाण बतलाया गया है ।
३. कालानुगम
उक्त प्ररूपणाओंके समान कालप्ररूपणा में भी ओघ और आदेशकी अपेक्षा कालका निर्णय किया गया है, अर्थात् यह बतलाया गया है कि यह जीव किस गुणस्थान या मार्गणास्थान में कमसे कम कितने काल तक रहता है, और अधिकसे अधिक कितने काल रहता है ।
उदाहरणार्थ – मिथ्यादृष्टि जीव मिध्यात्वगुणस्थानमें कितने काल तक रहते हैं ? इस प्रश्नके
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