Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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क्रम नं.
विषय
जीवकी अपेक्षा सोदाहरण जघन्य और उत्कृष्ट काल १५४ कार्मणकाययोगी मिथ्यादृष्टि जीवोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा सोदाहरण जघन्य और उत्कृष्ट काल १५५ तीन विग्रहवाली गति किन जीवोंके होती है, यह बतलाकर तीन विग्रह करनेकी दिशाका निरूपण १५६ कार्मणकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यदृष्टि जीवोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा सोदाहरण जघन्य और उत्कृष्ट काल १५७ कार्मणका योगी सयोगिकेवलीका नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल
५ वेदमार्गणा
१५८ स्त्रीवेदी मिध्यादृष्टि जीवोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल १५९ स्त्रीवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों का पृथक् पृथक् काल-निरूपण १६० स्त्रीवेदी असंयत सम्यग्दृष्टि जीवोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा सोदाहरण जघन्य और उत्कृष्ट काल १६१ संयतासंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक स्त्रीवेदी जीवोंका सोदाहरण काल १६२ पुरुषवेदी मिथ्यादृष्टि जीवका नाना और एक जीवकी अपेक्षा सोदाहरण जघन्य और उत्कृष्ट काल
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कालानुगम-विषय-सूची
पू. नं. ] क्रम नं.
४३२-४३३
४३३-४३५
४३४-४३५
जघन्य
| १६६ नपुंसकवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा सोदाहरण और उत्कृष्ट काल १६७ संयतासंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तकके नपुंसकवेदी जीवोंका काल १६८ अपगतवेदी जीवोंका काल ६ कषायमार्गणा १६९ मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्त संयत गुणस्थान तकके चारों कषायवाले जीवोंके कालका कषायपरिवर्तन, गुणस्थान परिवर्तन और मरणकी अपेक्षा निरूपण
४३५-४३६
४३६-४३७ ४३७-४४४
४३७
४३८
४३८-४३९
४३९-४४०
विषय
१६३ सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक के पुरुषवेदी जीवोंका काल १६४ नपुंसक वेदी
मिथ्यादृष्टि
जीवोंका नाना और एक जीवकी अपेक्षा सोदाहरण जघन्य और उत्कृष्ट काल १६५ नपुंसकवेदी सासादनसम्यदृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका पृथक् पृथक् काल निरूपण
४४०-४४१।
| १७० किस कषायसे मरा हुआ जीव किस गतिमें उत्पन्न होता है, इस बातका विवेचन १७१ क्रोध, मान और माया, इन तीन कषायवाले आठवें और नर्वे गुणस्थानवर्ती उपशामकों तथा लोभकषायवाले आठवें, नवें और दशर्वे गुणस्थानवर्ती उपशामक नाना और एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल
का;
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(५५)
प्र. नं.
४४१
४४१-४४२
४४२
४४२-४४३
४४३
४४४
४४४-४४८
४४४-४४५
४४५
४४६-४४७
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