Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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(१५)
षट्खंडागमको प्रस्तावना श्रुतावतारोंके ऐसे अवतरण दिये गये हैं, जिनमें कर्मप्रामृत और कषायप्राभृतको 'सिद्धान्त ' कहा गया है, तथा अपभ्रंश कवि पुष्पदन्तका वह अवतरण दिया है जहां उन्होंने धवल और जयधवलको सिद्धान्त कहा है। किन्तु इन ग्रन्थोंके सिद्धान्त कहे जानेसे अन्य ग्रंथ सिद्धान्त नहीं रहे, यह कौनसे तर्कसे सिद्ध हुआ, यह समझमें नहीं आता । इस सिलसिलेमें गोम्मटसारको असिद्धान्त सिद्ध करनेके लिये गोम्मटसारकी टीकाके वे अंश उद्धृत किये गये हैं जिनमें कहा गया है कि षट्खंडागमका निरक्शेष प्रमेयांश लेकर गोम्मटसारकी रचना की गई है । लेखकके अनुसार " इस कथनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि गोम्मटसार सिद्धान्तग्रंथ नहीं है, किन्तु सिद्धान्तग्रंथोंसे सारे लेकर बनाया गया है। सिद्धान्त ग्रंथ दो ही हैं, यह बात भी इन पंक्तियोंसे सिद्ध हो जाती है।" किन्तु उन पंक्तियोंमें हमें ऐसा व्यवच्छेदक भाव जरा भी दृष्टिगोचर नहीं होता । न तो लेखक सिद्धान्तकी कोई परिभाषा दे सके, जिससे केवल उक्त दो ही सिद्धान्त-ग्रंथ ठहर जायें और अन्य गोम्मटसारादि ग्रंथ सिद्धान्तश्रेणी के बाहर पड़ जायें । और न कोई ऐसा प्राचीन उल्लेख ही बता सके, जहां कहा गया हो कि सिद्धान्त-ग्रंथ केवल दो ही हैं, अन्य नहीं । यथार्थ बात तो यह है कि सिद्धान्त, आगम, प्रवचन ये सब शब्द एक ही अर्थके पर्यायवाची शब्द हैं । स्वयं धवलाकारने कहा है-'भागमो सिद्धंतो पवयणमिदि एयट्ठो ' ( सत्प्र. १ पृ. २०)
. अर्थात् , आगम, सिद्धान्त, प्रवचन, ये सब एक ही अर्थके बोधक शब्द हैं । लेखकने भी आगम और सिद्धान्तको एकार्थवाची स्वीकार किया है। यही नहीं, किन्तु गृहस्थोंको सिद्धान्ताध्ययनका निषेध करनेवाले पूर्वोक्त साधारण परस्पर-विरोधी कथन करनेवाले और युक्ति-हीन वाक्योंको भी वे 'आगम' करके मानते हैं । किन्तु सिद्धान्तोंके निरवशेष प्रमेयांशका समुद्वार करनेवाले गोम्मटसारको सिद्धान्त माननेमें उन्हें ऐतराज है । षट्खंडागम भी तो महाकर्मप्रकृतिपाहुडका संक्षिप्त समुद्धार है । फिर यह कैसे सिद्धान्त बना रहता है, और गोम्मटसार कैसे सिद्धान्त-बाह्य: हो जाता है; यह युक्ति समझमें नहीं आती । यदि किसीके किन्हीं ग्रंथोंको सिद्धान्त कहनेसे ही अन्य दूसरे ग्रंथ असिद्धान्त हो जाते हों, तो गोम्मटसारादि ग्रंथोंके भी सिद्धान्तरूपसे उल्लिखित किये जानेके प्रमाण दिये जा सकते हैं। उदाहरणार्थ, राजमल्लकृत लाटीसंहिता नामक श्रावकाचार ग्रंथमें उल्लेख हैतदुक्तं गोम्मटसारे सिद्धान्ते सिद्धसाधने । तत्सूत्रं च यथाम्नायात् प्रतीत्य वहिम साम्प्रतम् ॥ ५, १३५.
इस प्रकारके उल्लेखोंसे क्या गोम्मटसार सिद्धान्त ग्रंथ सिद्ध नहीं होता ! और क्या उसके सिद्धान्त ग्रंथ सिद्ध हो जानेसे शेष ग्रंथ सिद्धान्तबाह्य सिद्ध हो जाते हैं ?
यदि विचार पूर्वक देखा जाय तो समस्त जैनधर्म और सिद्धान्तका ध्येय जिनोक्त वाक्योंको सर्वव्यापी बनानेका रहा है । वयं तीर्थंकरके समवसरणमें मनुष्यमात्र ही नहीं, पशु-पक्षी आदि तक सम्मिलित होते थे, जो सभी भगवान्के उपदेशको सुन समझ सकते थे। जब द्वादशांग वाणीकी आधारभूत दिव्यप्वनि तकको सुननेका अधिकार समस्त प्राणियोंको है, तब उस वाणीके सारांशको प्रथित करने
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