Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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षट्खंडागमकी प्रस्तावना है तथापि यह तो सुविदित है कि पं. मेधावी या मीहा जिनचन्द्रभट्टारकके शिष्य थे और उन्होंने अपना यह ग्रन्थ वि. सं, १५४१ में हिसार (पंजाब) नगरमें वसुनन्दि, आशाधर और समन्तभद्रक प्रन्योंके आधारसे बनाया था । धर्मोपदेशपीयूषवर्षाकर श्रावकाचारका तो हमने नाम ही इसी समय प्रथम वार देखा है, और यहां भी न तो उसके कर्ताका कोई नाम-धाम बतलाया गया और न उसकी किसी प्रति मुद्रित या हस्तलिखितका उल्लेख किया गया । अतएव इस अज्ञात कुल-शील "ग्रंथकी हम परीक्षा क्या करें ! यह कोई प्राचीन प्रामाणिक ग्रंथ तो ज्ञात नहीं होता। लेखकने
एक वर्तमान रचयिता मुनि सुधर्मसागरजीके लिखे हुए 'सुधर्मश्रावकाचार ' का मत भी उद्धृत 'किया है। किन्तु प्राचीन प्रमाणोंकी ऊहापोहमें उसे लेना हमने उचित नहीं समझा । वह तो पूर्वोक्त ग्रंथोंके आश्रयसे ही आजका उनका मत है। . .
इस प्रकार हम देखते हैं कि गृहस्थको सिद्धान्त-ग्रंथोंका निषेध करनेवाले ग्रंथोंमें जिन रचनाओंका समय निश्चयतः ज्ञात है वे १३ हवीं शताब्दिसे पूर्वकी नहीं हैं। उनमें सिद्धान्तका अर्थ भी स्पष्ट नहीं किया गया और जहां किया गया है वहां पूर्वापर-विरोध पाया जाता है। कोई उचित युक्ति या तर्क भी उनमें नहीं पाया जाता । यह तो सुज्ञात ही है कि जिन ग्रंथोंमें पूर्वापर-विरोध या विवेक वैपरीत्य पाया जावे वे प्रामाणिक आगम नहीं कहे जा सकते । इन्द्रनन्दिके वाक्योंका तो सीधे सिद्धान्त ग्रंथोंके ही वाक्योंसे विरोध पाया जाता है, अतः वह प्रामाणिक किस प्रकार गिना जा सकता है ? यथार्थतः प्रामाणिक जैन शास्त्रोंकी रचना और शासनके प्रवर्तनका चरमोन्नत काल तो उक्त समस्त ग्रंथों की रचनासे पूर्ववर्ती ही है । तब क्या कारण है कि इससे पूर्वके ग्रंथों में हमें गृहस्थ के सिद्धान्त ग्रंथोंके अध्ययनके सम्बन्धमें किसी नियंत्रणका उल्लेख नहीं मिलता ! श्रावकाचारका सबसे प्रधान, प्राचीन, उतम और सुप्रसिद्ध ग्रंथ स्वामी समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डश्रावकाचार है, जिसे वादिराजसूरिने — अक्षयसुखावह ' और प्रभाचन्द्रने ' अखिल सागारमार्गको प्रकाशित करनेवाला निर्मल सूर्य' कहा है। इस ग्रंथमें श्रावकोंके अध्ययनपर कोई नियंत्रण नहीं लगाया गया, किन्तु इसके विपरीत सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्रको सम्पादन करना ही गृहस्थका सच्चा धर्म कहा है, तथा ज्ञान-परिच्छेदमें, प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोगसम्बन्धी समस आगमका स्वरूप दिखाकर यह स्पष्ट कर दिया है कि इनका अध्ययन गृहस्थके लिये हितकारी है। द्रव्यानुयोगका अर्थ भी वहां टीकाकार प्रभाचन्द्रजीने ' द्रव्यानुयोग सिद्धान्तसूत्र' ' किया है, जिससे स्पष्ट है कि गृहस्थ के सिद्धान्ताध्ययनमें उन्हें किसी प्रकारकी कैद अभीष्ट नहीं है । इस श्रावकाचारमें उपवासके दिन गृहस्थको ज्ञान-ध्यान परायण' होनेका विशेषरूपसे उपदेश है, तथा उत्कृष्ट श्रावकके लिये समय या आगमका ज्ञान अत्यन्त आवश्यक बतलाया है-समयं यदि जानीते, श्रेयो ज्ञाता ध्रुवं भवति ॥ ५, २७. ' यदि समयं आग जानीते, आगमज्ञो यदि भवति, तदा ध्रुवं निश्चयेन श्रेयो ज्ञाता स भवति'
(प्रभाचंद्रकृत टीका) ...... १ रत्नकरण्डश्रावकाचार ( मा. में, मा.) १, ५. २ रत्नकरण्डावाकचार (मा. अं. मा.) ४, १८.
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