Book Title: Shatkhandagama Pustak 04
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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सिद्धान्त और उनके अध्ययनका अधिकार
(१३)
धर्मपरीक्षादि ग्रन्थों के विद्वान् कर्ता अमितगति आचार्य विक्रमकी ११ हवीं शताब्दिमें हुए हैं । इनका बनाया हुआ श्रावकाचार भी खूत्र सुविस्तृत ग्रंथ है । इस ग्रंथ में उन्होंने ' जिनप्रवचनका अभिज्ञ' होना उत्तम श्रावकका आवश्यक लक्षण माना है । यथा-
ऋजुभूतमनोबुद्धिर्गुरुशुश्रूषणोद्यतः । जिनप्रवचनाभिज्ञः श्रावकः सप्तधोत्तमः ॥ १३, २. आगे चलकर उन्होंने गृहस्थको आगमका अध्ययन करना भी आवश्यक बतलाया हैआगमाध्ययनं कार्यं कृतकालादिशुद्धिना । विनयारूढचित्तेन बहुमानविधायिना ॥ १३, १०. गृहस्थको स्वाध्यायके उपदेशमें स्वाध्यायके पांच प्रकारोंमें वाचना, आम्नाय और अनुप्रेक्षाका भी विधान है । यथा—
वाचना पृच्छनाऽऽम्नायानुप्रेक्षा धर्मदेशना । स्वाध्यायः पंचधा कृत्यः पंचमीं गतिमिच्छता ।। १३, ८१ गृहस्थोंको जहां तक हो सके स्वयं जिनभगवान् के वचनों का पठन और ज्ञान प्राप्त करना चाहिये, क्योंकि, उनके विना वे कृत्याकृत्य - विवेककी प्राप्ति, व आत्म अहितका त्याग नहीं कर सकते । जानात्यकृत्यं न जनो न कृत्यं जैनेश्वरं वाक्यमबुद्धमानः ।
करोत्यकृत्यं विजहाति कृत्यं ततस्ततो गच्छति दुःखमुग्रम् ॥ ६३, ८९
अनात्मनीनं परिहर्तुकामा ग्रहीतुकामाः पुनरात्मनीनम् ।
पठन्ति शश्वज्जिननाथवाक्यं समस्तकल्याणविधायि संतः ॥ १३, ९०
यथार्थतः वे मूढ हैं जो स्वयं जिनभगवान् के कहे हुए सूत्रोंको छोड़कर दूसरोंके वचनोंका आश्रय लेते हैं । जिनभगवान् के वाक्यके समान दूसरा अमृत नहीं है—
सुखाय ये सूत्रमपास्य जैनं मूढाः श्रयंते वचनं परेषाम् । १३,९१
विहाय वाक्यं जिनचन्द्रदृष्टं परं न पीयूषमिहास्ति किंचित् ॥ १३, ९२ इत्यादि
यशः कीर्तिकृत प्रबोधसार भी श्रावकाचारका उत्तम ग्रंथ है । इसमें गृहस्थोंको उपदेश दिया गया है कि श्रुतके अभाव में तो समस्त शासनका नाश हो जायगा, अतः सब प्रयत्न करके श्रुतके सारका उद्धार करना चाहिये । श्रुतसे ही तत्त्वों का परामर्श होता है और श्रुतसे ही शासन की वृद्धि होती है । तीर्थंकरोंके अभाव में शासन श्रुतके ही आधीन है, इत्यादि.
नश्यत्येव ध्रुवं सर्व श्रुताभावेऽत्र शासनम् । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन श्रुतसारं समुद्धरेत् ॥ श्रुतात्तत्वपरामर्शः श्रुतात्समयवर्द्धनम् । तीर्थेशाभावतः सर्वं श्रुताधीनं हि शासनम् ।। ३, ६३-६४. इस प्रकार प्राचीन श्रावकाचार-ग्रंथोंने गृहस्थोंके लिये न केवल सिद्धान्ताध्ययनका निषेध नहीं किया, किन्तु प्रबलतासे उसका उपदेश दिया है । हम ऊपर बतला ही आये हैं कि स्वयं भगवान् कुंदकुंदाचार्य अपने सूत्रपाहुडमें जिनभगवान् के कहे हुए सूत्रके अर्थ के ज्ञानको सम्यग्दर्शनका अत्यन्त आवश्यक अंग कहते हैं, और सूत्रार्थसे जो च्युत हुआ उसे वे मिध्यादृष्टि समझते हैं । सिद्धान्त किसे कहना चाहिये, इस बातकी पुष्टिमें केवल इद्रनंन्दि और विबुधश्रीधरकृत
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१ सखाराम नेमचंद ग्रंथमाला, सोलापुर, १९२८२ अनन्तकीर्ति जैनग्रंथमाला, बम्बई, १९७९.
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